अमेरिकी वित्तीय क्षेत्र में उथल पुथल का असर भारतीय बैकों पर पड़ने की सम्भावना नहीं  


अमेरिकी वित्तीय क्षेत्र में बैंकों पर भारी संकट आ गया है। अभी तक दो बैंक (सिलिकॉन वैली बैंक एवं  सिग्नेचर बैंक) बंद हो चुके हैं और 6 अन्य छोटे आकार के बैंकों (फर्स्ट रिपब्लिक बैंक, वेस्टर्न अलाइन्स बैंक, पैकवेस्ट, यूएमबी फायनैन्शल सहित) पर गम्भीर संकट बना हुआ है। इन बैंकों में रोकड़ एवं तरलता की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गई है एवं इनके पास अपने जमाकर्ताओं को भुगतान करने के लिए पर्याप्त राशि उपलब्ध नहीं है। इन बैकों के शेयरों की कीमत पूंजी बाजार में 14 से 30 प्रतिशत के बीच गिर चुकी है।



 एक आंकलन के अनुसार अमेरिका के 160 बड़े बैंकों (जिनके पास 500 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक राशि की आस्तियां हैं) को 20,600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक्सान हुआ है। अमेरिका की रेटिंग संस्थाओं स्टैंडर्ड एंड पूअर्स एवं फिच ने कुछ बैंकों की रेटिंग घटाकर जंक श्रेणी में डाल दी है क्योंकि यह बैंक अपने जमाकर्ताओं को राशि वापिस करने की स्थिति में नहीं है। अमेरिका के सबसे बड़े बैंकों को भी भारी आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि इनके अमेरिकी बांड्ज में किए गए निवेश की बाजार कीमत कम हो गई है। सिटी बैंक समूह को 4,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर, बैंक आफ अमेरिका को 2,120 करोड़ अमेरिकी डॉलर, जे पी मोर्गन चेज को 1,730 करोड़ अमेरिकी डॉलर, टरुइस्ट फायनैन्शल को 1,360 करोड़ अमेरिकी डॉलर, वेल्ज फार्गो को 1,340 करोड़ अमेरिकी डॉलर एवं यूएस बैंक कॉर्प को 1,140 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक्सान हुआ है। यह सभी बड़े बैंक हैं अतः इस नुक्सान को सहन कर जाएंगे परंतु छोटे बैंक तो असफल (फैल) ही हो जाने वाले हैं।  


दरअसल, अमेरिकी बैंकों में समस्या वहां के केंद्रीय बैंक, यूएस फेड रिजर्व, द्वारा लगातार यूएस फेड रेट में की जा रही वृद्धि के चलते उत्पन्न हुई है। अमेरिका में समस्त बैंकों ने अमेरिकी बांड्ज में भारी भरकम निवेश किया हुआ है। पहिले चूंकि अमेरिका में ब्याज दरें कम थी अतः इन बांड्ज पर कूपन रेट (ब्याज दर) भी कम था और समय के साथ जैसे जैसे अमेरिका में ब्याज दरों का बढ़ना शुरू हुआ, नए बांड्ज बढ़ी हुई ब्याज दरों पर जारी किए जाने लगे।  इसके कारण पुराने बांड्ज की बाजार कीमत कम होती चली गई क्योंकि इन बांड्ज पर कम ब्याज दर लागू थी। इन बांड्ज की बाजार कीमत इतनी कम होती गई कि वह इन बांड्ज में निवेश की गई राशि से भी कम रह गई। अतः इन बैंकों को इन पुराने बांड्ज पर भारी भरकम नुक्सान हुआ है। इन बांड्ज को आज के समय में बाजार में बेचने पर इन बैंकों को अपने निवेश की राशि भी नहीं मिल पा रही है। इस प्रकार ये बैंक अपने जमाकर्ताओं को राशि का भुगतान करने में असफल हो रहे हैं। 


अमेरिका के साथ ही अन्य कई विकसित देशों ने भी मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से लगातार ब्याज दरों में वृद्धि की है। अतः यूरोपीयन देशों में भी बैंकों में इसी प्रकार की समस्या आ सकती है। क्रेडिट स्विस नामक एक निवेश बैंक में तो इस प्रकार की समस्या दृष्टिगोचर भी है। इस बैंक के शेयर की कीमत पूंजी बाजार में 98 प्रतिशत तक गिर गई है। दरअसल, विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा, मुद्रा स्फीति जो कि कोविड महामारी एवं रूस यूक्रेन युद्ध के चलते उत्पादों की आपूर्ति में आई कमी के कारण उत्पन्न हुई थी, को उत्पादों की मांग में कमी करने के उद्देश्य से, ब्याज दरों में वृद्धि कर नियंत्रित करने का प्रयास किया जा रहा था। यह अपने आप में एक सही निर्णय नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाने के स्थान पर उत्पादों की मांग कम करने के प्रयास किए जा रहे थे, जो कि एक नकारात्मक निर्णय कहा जा सकता है। इसके चलते कई संस्थानों को तो कर्मचारियों की छटनी भी करनी पड़ी है और अब विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों के इस निर्णय ने इन देशों की बैंकों के लिए भी एक गंभीर वित्तीय संकट खड़ा कर दिया है।


अब यहां प्रशन्न यह खड़ा हो रहा है कि अमेरिका सहित अन्य विकसित देशों की बैंकों के सामने आए इस वित्तीय संकट का प्रभाव क्या भारतीय बैंकों पर भी पड़ेगा। इसके उत्तर में  स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारत में चूंकि केंद्र सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक ने पूर्व में ही कई निम्नलिखित निर्णय लिए हैं जिसके चलते भारतीय बैंकों की वित्तीय स्थिति इस संदर्भ में बहुत सुदृढ़ हो गई है।    


बैंकिंग उद्योग किसी भी देश में अर्थ जगत की रीढ़ माना जाता है। बैंकिंग उद्योग में आ रही परेशानियों का निदान यदि समय पर नहीं किया जाता है तो आगे चलकर यह समस्या उस देश के अन्य उद्योगों को प्रभावित कर, उस देश के आर्थिक विकास की गति को कम कर सकती है। इसलिए पिछले 8 वर्षों के दौरान केंद्र सरकार ने बैंकों की लगभग हर तरह की समस्याओं के समाधान हेतु कई ईमानदार प्रयास किए हैं। गैरनिष्पादनकारी आस्तियों से निपटने के लिए दिवाला एवं दिवालियापन संहिता लागू की गई है। देश में सही ब्याज दरों को लागू करने के उद्देश्य से मौद्रिक नीति समिति बनायी गई है। साथ ही, केंद्र सरकार ने इंद्रधनुष योजना को लागू करते हुए, सरकारी क्षेत्र के बैंकों को 3.10 लाख करोड़ रुपए से अधिक  की पूंजी उपलब्ध करायी है। साथ ही, दिनांक 30 अगस्त 2019 को देश की वित्त मंत्री माननीया श्रीमती निर्मला सीतारमन ने बैंकिंग क्षेत्र को और अधिक मज़बूत बनाए जाने के उद्देश्य से सरकारी क्षेत्र के बैंकों के आपस में विलय की घोषणा की थी। सरकारी क्षेत्र के बैकों की, समेकन के माध्यम से, क्षमता अनवरोधित (अनलाक) करने के उद्देश्य से ही सरकारी क्षेत्र के बैंकों के आपस में विलय की घोषणा की गई थी। इन बैंकों के विलय में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया था कि इनके विलय से किसी भी ग्राहक को किसी भी प्रकार की कोई परेशानी ना हो, ये तकनीक के लिहाज से एक ही प्लैट्फार्म पर हों, इन बैंकों की संस्कृति एक ही हो तथा इन बैंकों के व्यवसाय में वृद्धि दृष्टिगोचर हो। वर्ष 2017 में भारत में सरकारी क्षेत्र के 27 बैंक थे लेकिन इनके आपस में विलय के बाद अब केवल 12 सरकारी क्षेत्र के बैंक रह जाएंगे। इस प्रकार देश में सरकारी क्षेत्र के बैंकों को अगली पीढ़ी के बैंकों का रूप दिया जा रहा है। उक्त विलय के बाद इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों के बड़े हुए आकार ने इन बैंकों की ऋण प्रदान करने की क्षमता में अभितपूर्व वृद्धि की है। इन बैंकों की राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत उपस्थिति के साथ ही इनकी अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहुंच बन गई है। विलय के बाद इन बैंकों की परिचालन लागत में कमी आई है जिससे इनके द्वारा प्रदान किए जा रहे ऋणों की लागत में भी सुधार हुआ है। इन बैंकों द्वारा बैंकिंग व्यवसाय हेतु, नई तकनीकी के अपनाने पर विशेष जोर दिया जा रहा है जिससे इनकी उत्पादकता में उल्लेखनीय सुधार होता दिखाई दे रहा है। इन बैंकों की बाजार से संसाधनों को जुटाने की क्षमता में भी सुधार हुआ है।      


भारत में समस्त वर्गीकृत  वाणिज्यिक बैंकों में पूंजी पर्याप्तता अनुपात 31 मार्च 2022 को समाप्त अवधि में 16.7 प्रतिशत के सराहनीय स्तर पर पहुंच गया है। जबकि अंतरराष्ट्रीय मानदंडो के अनुसार, बैंकों में पूंजी पर्याप्तता अनुपात न्यूनतम 8 प्रतिशत (एवं 2.5 प्रतिशत के पूंजी कंज़र्वेटिव बफर को मिलाकर 10.5 प्रतिशत) होना बैंकों के लिए आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार, भारत में वर्गीकृत वाणिज्यिक बैंकों की आस्तियों पर आय एवं इक्वटी पर आय भी इस अवधि में संतोषप्रद रही है, जिसके चलते पूंजी पर्याप्तता अनुपात में भी लगातार सुधार हो रहा है।


वर्गीकृत वाणिज्यिक बैंकों में सकल गैरनिष्पादनकारी आस्तियों एवं शुद्ध गैरनिष्पादनकारी आस्तियों का प्रतिशत भी 30 सितम्बर 2022 को समाप्त तिमाही में कम होकर 5.0 प्रतिशत (पिछले 7 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर) एवं 1.3 प्रतिशत (पिछले 10 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर) क्रमशः हो गया है। उक्त बैंकों के प्रोविजन कवरेज अनुपात में सुधार हुआ है और यह मार्च 2021 के 67.6 प्रतिशत से बढ़कर 31 मार्च 2022 को 70.9 प्रतिशत हो गया है। इसका आश्य यह है कि इन बैंकों ने अपने खातों में  गैरनिष्पादनकारी आस्तियों के लिए पर्याप्त मात्रा में प्रोविजन कर लिया है। यदि आगे आने वाले समय में इन गैरनिष्पादनकारी आस्तियों में समस्या होती है तो बैंकों को इस प्रकार की समस्या से निपटने में आसानी होगी।


भारतीय रिजर्व बैंक के नियमों के अनुसार भारतीय बैंकों को 4.5 प्रतिशत रोकड़ रिजर्व अनुपात एवं 18 प्रतिशत संवैधानिक रिजर्व अनुपात बनाए रखना होता है। जिसके अंतर्गत बैंकों को रोकड़ एवं सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक के पास उक्त राशि जमा रखना होती है, ताकि बैकों को तरलता सम्बंधी समस्या का सामना नहीं करना पड़े। साथ ही, भारतीय बैकों में प्रति जमाकर्ता के खाते में रुपए 5 लाख तक की जमाराशि का बीमा भी रहता है। 


भारतीय बैंकों की उक्त वर्णित स्थिति के चलते भारतीय रिजर्व बैंक की आज पूरी दुनिया में बहुत प्रशंसा हो रही है कि उसने भारतीय बैकों को आज इतनी मजबूत स्थिति में पहुंचा दिया है। अभी हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डा. शक्तिकांत दास को “गवर्नर आफ द ईयर” अवार्ड अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2023 के लिए सेंट्रल बैंकिंग, एक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान जर्नल की ओर से प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है।