अंतरराष्ट्रीय  बाजार  में  भारतीय  रुपए  की  भुगतान  के  माध्यम  के  रूप  में  बढ़  रही  है  स्वीकार्यता

भुगतान के माध्यम के रूप में मुद्रा की आवश्यकता 

विभिन्न देशों के बीच विदेशी व्यापार के व्यवहारों का निपटान करने हेतु उत्पादों का आयात एवं निर्यात करने वाले देशों को आपस में स्वीकार्य मुद्रा की आवश्यकता होती है। प्राचीन काल में विदेशी व्यापार के व्यवहारों का निपटान स्वर्ण मुद्राओं में किया जाता था। वर्ष 1945 में ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर विभिन्न देशों द्वारा विदेशी व्यापार के व्यवहारों के निपटान हेतु उस समय की मजबूत मुद्रा ब्रिटिश स्टर्लिंग पोंड को स्वीकार किया गया था। परंतु, कालांतर में अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पूरे विश्व में सबसे तेज गति से आर्थिक विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बनने के चलते अमेरिकी डॉलर ने ब्रिटिश स्टर्लिंग पोंड का स्थान ले लिया, जो आज तक जारी है। आज भी अमेरिकी डॉलर पूरे विश्व में एक मजबूत मुद्रा बना हुआ है और विशेष रूप से कोरोना महामारी एवं रूस यूक्रेन युद्ध के बाद से अमेरिकी डॉलर की कीमत अन्य देशों की मुद्रा की कीमत की तुलना में अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। एक अमेरिकी डॉलर आज 82 रुपए का हो गया है। 


अमेरिकी डॉलर का लगातार मजबूत होते जाना 

दरअसल अमेरिकी डॉलर की मांग अंतरराष्ट्रीय बाजार में हाल ही के समय में बहुत बढ़ी है। एक तो, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बहुत तेज गति से बढ़ी हैं, प्रायः समस्त देश अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की खरीद का भुगतान अमेरिकी डॉलर में ही करते हैं जिसके कारण अमेरिकी डॉलर की मांग भी बढ़ी है और जिसके चलते अमेरिकी डॉलर की कीमत में भी वृद्धि दर्ज हुई है। दूसरे, अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों में मुद्रा स्फीति की दर 10 प्रतिशत के आसपास (अमेरिका में 9.1 प्रतिशत) पहुंच गई थी, जो कि इन देशों में पिछले 40-50 वर्षों में सबसे अधिक महंगाई की दर है। महंगाई पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से इन देशों द्वारा ब्याज दरों में लगातार  वृद्धि की जा रही है, जिसके कारण इन देशों द्वारा जारी किए जाने वाले बांडस पर प्रतिफल बहुत आकर्षित हो रहे है एवं विदेशी निवेशक विकासशील देशों से  अपना निवेश निकालकर अमेरिकी बांडस में अपना निवेश बढ़ाते जा रहे हैं। जिन विकासशील देशों से डॉलर का निवेश निकाला जा रहा है उन देशों के विदेशी मुद्रा के भंडार कम होते जा रहे हैं जिससे उनकी अपनी मुद्रा पर दबाव आ रहा है और डॉलर की स्थिति लगातार मजबूत होती जा रही है।

 विभिन्न देशों की मुद्राओं का अवमूल्यन 

जापान येन का अमेरिकी डॉलर की तुलना में 22 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ है, ब्रिटिश पाउंड का 20 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ है, यूरो का 15 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ है, दक्षिण कोरिया की मुद्रा का 15 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ है, आस्ट्रेलिया की मुद्रा का 12 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ है वहीं चीनी यूआन एवं भारतीय रुपए का 10 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ है। चूंकि अन्य देशों की मुद्राओं का भारतीय रुपए की तुलना में अधिक अवमूल्यन हुआ है अतः भारतीय रूपए की कीमत इन अन्य देशों की मुद्राओं की तुलना में बढ़ गई है। 

कई विकसित देशों एवं एशिया के कई देशों की मुद्राओं की तुलना में भारतीय रुपए का अमेरिकी डॉलर की तुलना में कम अवमूल्यन होने के कारणों में मुख्य रूप से शामिल हैं भारतीय अर्थव्यवस्था का लगातार मजबूत रहना और देश में आर्थिक विकास की गति का तेज होना। हाल ही के समय में भारत से निर्यात भी तेज गति से बढ़ रहे हैं जिसके चलते अमेरिकी डॉलर की भारत में आवक बढ़ी है। दूसरे, भारत में विदेशी निवेश भी लगातार बढ़ता जा रहा है जो कि सामान्यतः अमेरिकी डॉलर में ही होता है। इसके चलते भारत के पास पर्याप्त मात्रा में विदेशी मुद्रा का भंडार मौजूद है। 

अमेरिकी डॉलर के लगातार मजबूत होने का प्रभाव 

वैश्विक स्तर पर अमेरिकी डॉलर का लगातार इस प्रकार मजबूत होते जाना एवं अन्य देशों की मुद्रा की कीमत गिरते जाना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अन्य देशों के लिए ठीक नहीं है। क्योंकि, जैसे यदि भारत का ही उदाहरण लें, भारतीय रुपए की कीमत लगातार अमेरिकी डॉलर की तुलना में गिरते जाने के मायने यह है कि भारत द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं का महंगा होते जाना एवं भारत द्वारा अधिक अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया जाना। इसके परिणाम स्वरूप भारत में भी मुद्रा स्फीति की दर में वृद्धि हो रही है एवं इसे आयातित महंगाई भी कहा जाता है। इस प्रकार भारत सहित विश्व के अन्य देशों की विदेशी व्यापार करने पर अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता बढ़ गई है। हालांकि विश्व के समस्त देश वैश्विक स्तर पर विदेशी व्यापार करने के लिए विदेशी मुद्रा, जैसे डॉलर, यूरो, येन, पाउंड आदि का उपयोग  करते रहे हैं, और अब चीन की मुद्रा युआन का इस्तेमाल भी किया जाने लगा है। परंतु, अमेरिकी डॉलर अभी भी विदेशी व्यापार के लिए सबसे प्रभावी मुद्रा बना हुआ है और इसीलिए पूरी दुनिया में अमेरिका की बादशाहत भी बरकरार  है। 

भारतीय रुपए को भुगतान के माध्यम के रूप में स्वीकार्यता 

परंतु, अब विदेशी व्यापार में अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से भारतीय रिजर्व बैंक ने हाल ही में भारतीय रुपए को विदेशी व्यापार में भुगतान के माध्यम के रूप में स्वीकार्यता प्रदान की है। विशेष रूप से रूस एवं यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध के बाद रूस और इसके पूर्व ईरान पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के चलते भारत को  इन देशों से कच्चे तेल के आयात में भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। इसलिए इन देशों द्वारा कच्चे तेल के भुगतान के रूप में भारतीय रुपए को स्वीकार करने पर अपनी सहमति दे दी गई थी। अतः अब न केवल रूस और ईरान बल्कि कई अन्य कई देशों यथा श्रीलंका, बंगलादेश एवं अरब राष्ट्र भी भारत से आयात और निर्यात करने पर भारतीय रुपए में भुगतान कर सकेंगे एवं भुगतान प्राप्त कर सकेंगे। इससे अमेरिकी डॉलर की मांग भारत के लिए कम होगी। इससे भारत की अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम हो जाएगी और रुपए की कीमत पर दबाव भी कम होगा। जो अंततः भारत में मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने में भी सहायक होगा। इससे भारत के साथ विदेशी व्यापार करने वाले देशों को भी लाभ होगा क्योंकि इन देशों द्वारा भारत से आयात की जाने वाली  वस्तुओं का  भुगतान भी भारतीय रुपए में ही किया जा सकेगा। अतः इन देशों की निर्भरता भी अमेरिकी डॉलर पर कम होगी और इन देशों को भारत से निर्यात और अधिक मात्रा में होने लगेंगे।             

अभी तक विश्व के 34 देशों ने भारत के साथ अपना विदेशी व्यापार भारतीय रुपए अथवा उन देशों की अपनी मुद्रा में करने की इच्छा व्यक्त की है। जबकि 64 अन्य देश, जिसमें इटली एवं जर्मनी जैसे विकसित देश भी शामिल हैं, इस सम्बंध में अपनी सकारात्मक सोच को आगे बढ़ा रहे हैं एवं भारत से उनकी चर्चा भी चल रही है। कुछ देशों (रूस, मारिशस, मलेशिया, श्रीलंका, सिंगापुर, म्यांमार, इजराईल, आदि) ने तो अपने विदेशी व्यापार के लेनदेनों का निपटान भारतीय रुपए अथवा उनकी स्वयं की मुद्रा में करने के उद्देश्य से भारतीय बैंकों के साथ विशेष रुपया वोस्ट्रो खाते भी खोल लिए हैं।

भारत द्वारा भारतीय रुपए को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विदेशी व्यापार में भुगतान माध्यम के रूप में स्वीकृति प्रदान करना भारत के लिए गेम चेंजर साबित होगा एवं इससे हाल ही के समय में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर लगातार बढ़ रहे दबाव को न केवल कम किया जा सकेगा बल्कि व्यापार घाटे को भी नियंत्रण में रखा जा सकेगा एवं इससे आयातित मुद्रा स्फीति पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा। साथ ही, भारतीय रुपए की भुगतान के माध्यम के रूप में स्वीकार्यता, अंतरराष्ट्रीय बाजार में, और भी तेजी से बढ़ने लगेगी।