शिवाजी महाराज के शासनकाल की आर्थिक नीतियां

इतिहास के किसी भी खंडकाल में भारतीय सनातन संस्कृति का अनुपालन करते हुए किए गए समस्त प्रकार के कार्यों में सफलता निश्चित मिलती आई है। ध्यान में आता है कि भारतीय आर्थिक दर्शन भी सनातन संस्कृति के अनुरूप ही रहा है। छत्रपति शिवाजी महाराज भी हमारे वेदों एवं पुराणों में वर्णित नियमों के अनुसार ही अपने राज्य में आर्थिक नीतियों का निर्धारण करते थे। अपनी रियासत के नागरिकों को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हो और वे परिवार सहित अपने लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था आसानी से कर सकें, इसका विशेष ध्यान आपके शासनकाल में रखा जाता था। उस खंडकाल में नागरिकों के लिए रोजगार हेतु कृषि क्षेत्र ही मुख्य आधार था। कृषि गतिविधियों के साथ साथ पशुपालन कर ग्रामों में निवासरत नागरिक अपने एवं अपने परिवार का भरण पोषण सहज रूप से कर पाते थे एवं अति प्रसन्नचित तथा संतुष्ट रहते थे, हालांकि कालांतर में व्यापार एवं उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाने लगा था। 

विश्व के कई भागों में सभ्यता के उदय से कई सहस्त्राब्दी पूर्व, भारत में उन्नत व्यवसाय, उत्पादन, वाणिज्य, समुद्र पार विदेश व्यापार, जल, थल एवं वायुमार्ग से बिक्री हेतु वस्तुओं के परिवहन एवं तत्संबंधी आज जैसी उन्नत नियमावलियां, व्यवसाय के नियमन एवं करारोपण के सिद्धांतों का अत्यंत विस्तृत विवेचन भारत के प्राचीन वेद ग्रंथों में प्रचुर मात्रा में मिलता है। प्राचीन भारत में उन्नत व्यावसायिक प्रशासन व प्रबंधन युक्त अर्थतंत्र के होने के भी प्रमाण मिलते हैं। हमारे प्राचीन वेदों में कर प्रणाली के सम्बंध में यह बताया गया है कि राजा को अत्यधिक कराधान रूपी अत्याचार से विरत रहना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार करों की अधिकता से प्रजा में दरिद्रता, लोभ, असंतोष, विराग आदि भाव उपजते हैं। राजा द्वारा, स्मृतियों द्वारा निर्धारित, कर के अतिरिक्त अन्य कर लगाया जाना निछिद्ध था। कर की मात्रा वस्तुओं के मूल्य एवं समय पर निर्भर होती थी। राजा सामान्यतया उपज का छठा भाग ले सकता था। हां आपत्ति के समय अतिरिक्त कर लगाने की केवल एक बार की छूट रहती थी। अनुर्वर भूमि पर भारी कर नहीं लगाया जाता था। कर सदैव करदाता को हल्का लगे, जिसे वह बिना किसी कठिनाई व कर चोरी के चुका सके। जिस प्रकार मधुमक्खी पुष्पों से बिना कष्ट दिए मधु लेती है, उसी प्रकार राजा को प्रजा से बिना कष्ट दिए कर लेना चाहिए। कर प्रणाली के माध्यम से आर्थिक असमानता एवं घाटे की वित्त व्यवस्था पर अंकुश लगाया जाता था। चुंगी को भी कर की श्रेणी में शामिल किया जाता था, जो क्रेताओं एवं विक्रेताओं द्वारा राज्य के बाहर या भीतर ले जाने या लाए जाने वाले सामानों पर लगती थी। राजा के पास राजकोष के लिए तीन साधन थे - उपज पर राजा का भाग, चुंगी एवं दंड। इस प्रकार राजकोष पर प्राचीन ग्रंथों में अत्यंत विस्तृत व व्यावहारिक विमर्श पाया जाता है। 

छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में भी सनातन संस्कृति के अनुरूप आर्थिक नीतियां लागू की गई थी।  प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एच फुकुजावा लिखते हैं कि दक्षिण क्षेत्र के राजाओं और मुगल शासकों के बीच समय समय पर युद्ध की स्थिति निर्मित होती रहती थी क्योंकि मुगल शासक दक्षिण भारत के राज्यों पर अपना शासन स्थापित नहीं कर पा रहे थे। दक्षिण राज्यों एवं मुगल शासकों के बीच कई बार तो युद्ध भी हो जाते थे जिससे इन क्षेत्रों के किसानों के लिए खेती बाड़ी का कार्य विपरीत रूप से प्रभावित होता था। इन क्षेत्रों में ऐसे समय में एवं कई बार मानसून के अव्यवस्थित होने के चलते अकाल भी पड़ते रहते थे। इन विपरीत परिस्थितियों के बीच इन क्षेत्रों के गरीब किसान शिवाजी महाराज के राज्य वाले इलाके में आकर बस जाते थे क्योंकि इन इलाकों में उन्हें रोजगार के साधन आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। अन्य पड़ौसी राज्यों से पलायन कर शिवाजी महाराज के राज्य में आकर बसने वाले नागरिकों की देखभाल राज्य द्वारा भी की जाती थी। इसके लिए सरकार अपने खजाने में से राशि निकालकर पड़ौसी राज्यों से पलायन करने वाले नागरिकों पर खर्च करती रहती थी। समाज की भलाई के लिए किए जाने वाले कार्यों को सुचारू रूप से चलायमान रखने के उद्देश्य से शिवाजी महाराज के राज्य में कर प्रणाली में समय समय पर फेर बदल भी किया जाता था।

शिवाजी महाराज के राज्य में प्रारम्भिक काल में व्यापार बहुत कम मात्रा में होता था और राज्य की अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इस राज्य में उस समय चौथ एवं सरदेशमुखी, यह दो प्रकार के कर प्रचलन में थे। नागरिकों को राज्य में सुरक्षा प्रदान करने के एवज में चौथ नामक कर लगाया जाता था। इस प्रकार का कर अन्य रियासतों द्वारा भी अपने नागरिकों से वसूला जाता था, उस खंडकाल में यह एक सामान्य कर था, जिसके अंतर्गत किसानों एवं श्रमिकों को यह आश्वासन दिया जाता था कि राज्य पर किसी भी बाहरी आक्रमण के समय इन नागरिकों को प्रशासन द्वारा सुरक्षा प्रदान की जावेगी। 

दूसरी ओर, सरदेशमुखी नामक कर प्रचलन में था। इस कर प्रणाली के अन्तर्गत, राज्य द्वारा जमीन पर अर्जित की गई आय का 10 प्रतिशत हिस्सा कर के रूप में किसानों से वसूल किया जाता था। शिवाजी महाराज ने 1660 के दशक के शुरुआती वर्षों में ही उक्त वर्णित दोनों प्रकार के कर अपने नागरिकों से लेना शुरू कर दिए था। सरदेशमुखी कर वसूल करते समय प्रशासन द्वारा इस बात का ध्यान जरूर रखा जाता था कि जिन किसानों की जमीन कम उपजाऊ है, उनसे कर की वसूली कम दर पर की जाय ताकि इस श्रेणी के किसानों को अपने एवं परिवार के जीवन यापन में किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं हो। कौन सी जमीन अधिक उपजाऊ एवं कौन सी जमीन कम उपजाऊ है, यह जानने के लिए समय समय पर सर्वेक्षण भी कराए जाते थे और इस सर्वेक्षण के परिणामों के आधार पर ही विभिन्न किसानों के लिए कर की दर निर्धारित की जाती थी। साथ ही कर की अधिकतम राशि भी निर्धारित की जाती थी एवं यह कुल उपज के एक तिहाई से अधिक नहीं रखी जाती थी। सरदेशमुखी मानक कर केवल उपज पर ही लगाया जाता था। 

शिवाजी महाराज के राज्य में खेती-बाड़ी ही राजस्व का मुख्य और लगभग इकलौता जरिया था, अतः शिवाजी महाराज का प्रशासन परती जमीन पर खेती करने वालों को उचित रियायतें भी प्रदान करता था। इन किसानों से कम दर पर कर लिया जाता था। कई बार तो पहले चार वर्षों के लिए प्रशासन द्वारा पट्टे पर दी गई जमीन  पर किसानों से कोई किराया ही नहीं वसूला जाता था, पांचवें साल में आधा किराया वसूला जाता था और फिर उसके बाद पूरा किराया वसूला जाता था। 

शिवाजी महाराज के प्रशासन द्वारा उस खंडकाल में जारी एक सर्कुलर से यह पता चलता है कि शिवाजी महाराज द्वारा किसानों को आवश्यकता पड़ने पर ब्याज मुक्त ऋण भी प्रदान किया जाता था, ताकि किसान अपने कृषि कार्य को सुचारू रूप से जारी रख सकें। प्रशासन के नियमों के अनुसार किसानों से केवल मूलधन की राशि ही वापिस ली जाती थी और वह भी किश्तों में।

शिवाजी महाराज के शासनकाल में कृषि क्षेत्र पर दबाव कम करने के उद्देश्य से नमक उद्योग को भी बढ़ावा दिया गया था एवं नमक उद्योग में राज्य ने भी अपना निवेश किया था। इससे किसानों के लिए यह आय का एक अतिरिक्त स्त्रोत बनकर उभरा था। शिवाजी महाराज के राज्य में प्रशासन द्वारा नमक उद्योग को बढ़ावा दिए जाने के पूर्व नमक का आयात पुर्तगाली व्यवसाईयों के माध्यम से होता था। राज्य में नमक के आयात को कम करने एवं अपने राज्य में उत्पादित नमक के उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पुर्तगाल से आयात किए जाने वाले नमक पर प्रशासन ने आयात कर को बढ़ा दिया था ताकि आयातित नमक की कीमत बाजार में  अधिक हो जाए एवं राज्य के व्यापारी नमक आयात करने के लिए निरुत्साहित हों तथा स्थानीय नमक उत्पादनकर्ताओं के हित सुरक्षित हो सकें। इस प्रकार, आयात कर का चलन शिवाजी महाराज के शासन काल में ही प्रारम्भ हुआ था। 

शिवाजी महाराज के प्रशासन द्वारा नमक उद्योग को प्रदान की गई विशेष सुविधाओं के चलते कुछ समय पश्चात तो राज्य से नमक का निर्यात भी होने लगा था जिससे धीरे धीरे पानी के जहाज बनाने का उद्योग भी राज्य में फलने फूलने लगा था। कालांतर में पानी के जहाजों का इस्तेमाल राज्य में नौ सेना के लिए भी किया जाने लगा था। विशेष रूप से अरब सागर को नियंत्रित करने और अपने साम्राज्य के तटीय क्षेत्रों को सुरक्षित करने के उद्देश्य से शिवाजी महाराज ने एक दुर्जेय नौसैनिक बेड़ा बनाया था। इस प्रकार शिवाजी महाराज ने समुद्री सुरक्षा के सामरिक महत्व को बहुत पहिले ही समझ लिया था। आपकी नौसेना ने न केवल कोंकण तट को समुद्री खतरों से बचाया था, बल्कि हिंद महासागर के व्यापार मार्गों में यूरोपीय शक्तियों के प्रभुत्व को भी चुनौती दी थी। इतिहासकार श्री जदुनाथ सरकार अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि शिवाजी महाराज के राज्य में विभिन्न आकार के लगभग 400 पानी के जहाज थे। हालांकि उस समय के एक अन्य प्रतिवेदन में यह संख्या 160 की बताई गई है। शिवाजी महाराज की नौ सेना ने पुर्तगालियों, डच एवं अंग्रेजों की नौ सेना को निशाना बनाने में सफलता पाई थी। शिवाजी महाराज ने अपने राज्य एवं आज के महाराष्ट्र के पेन, पनवेल और कल्याण क्षेत्रों में पानी के जहाज बनाने के उद्योग प्रारम्भ किये थे। इन क्षेत्रों में पानी के जहाज बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में लकड़ी उपलब्ध थी। यहां पर निर्मित किए गए पानी के जहाज वजन में हलके होते थे एवं तेज गति से चलते थे। कुछ जहाज तो आकार में बहुत बड़े भी रहते थे, जिन पर आठ तोपें तक लादी जाती थीं। वर्ष 1663 आते आते शिवाजी महाराज के जहाज आज के यमन के शहरों तक जाने लगे थे। बाद के वर्षों में तो व्यापारिक जहाज आज के ईरान एवं ईराक के बसरा शहर तक भी गए थे।

छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में सरल कर प्रणाली के चलते नागरिकों की आर्थिक स्थिति समय के साथ साथ काफी सुदृद्ध होती चली गई क्योंकि नागरिकों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का भी अच्छा उपयोग किया जाने लगा था। अधिकतम नागरिक ग्रामों में ही निवास करते थे एवं कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर थे। विभिन्न प्रकार की फसलें उगाकर गाय एवं भेड़ें पालते थे, जानवरों का शिकार करते एवं भेड़ों की ऊन से कपड़े बनते थे। इस खंडकाल में लगभग समस्त ग्रामों में नागरिकों की यही जीवन शैली थी। शिवाजी महाराज के शासनकाल में व्यापार के भी बढ़ावा दिया जा रहा था। मुख्य रूप से कपास, चमड़े से निर्मित उत्पाद एवं मसालों का निर्यात अन्य देशों को किया जाता था। भारत के पश्चिमी तट पर सूरत के बंदरगाह के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय व्यापार किया जाता था। जबकि, सूती एवं रेशमी कपड़ों का घरेलू व्यापार भी किया जाता था। 

डॉ राकेश कुमार आर्य द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य के संस्थापक शिवाजी और उनके उत्तराधिकार’ में बताया गया है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में प्रशासकीय कार्यों में सहायता के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद गठित की गई थी । इस परिषद को अष्ट प्रधान कहा जाता था। इस परिषद में मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहा जाता था, जो राजा के पश्चात सबसे प्रमुख व्यक्ति होता था। अमात्य, वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था। मंत्री, राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का ध्यान रखता था। सचिव, राजकीय कार्यालयों के कार्य करता था, जिसमें शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना जैसे कार्य भी सम्मिलित रहते थे। सुमन्त, उस समय का विदेशमंत्री था। सेना के प्रधान, को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक विषयों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश, न्यायिक विषयों का प्रधान रहता था।

मराठा राज्य को अपनी सुविधा के अनुसार शिवाजी महाराज ने चार भागों में विभक्त किया था। उसी के अनुसार वह प्रशासनिक कार्य चलाते थे। प्रत्येक प्रांत में प्रांतपति नियुक्त किया गया था। सारी की सारी व्यवस्था शुक्राचार्य और कौटिल्य के राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर चलती थी। प्रत्येक प्रांतपति के पास अपना उसी प्रकार का एक मंत्रिमंडल होता था, जिस प्रकार आज के प्रांतपति अर्थात मुख्यमंत्री के पास अपना एक मंत्रिमंडल होता है। प्रांतपति के इस मंत्रिमंडल को अष्टप्रधान समिति कहा जाता था।

न्याय व्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी। शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्मशास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था। शिवाजी महाराज की इस प्रकार की न्याय व्यवस्था से स्पष्ट पता चलता है कि वह भारतीय परंपराओं के प्रति अति श्रद्धालु थे। वह चाहते थे कि भारत की प्राचीन राज्यव्यवस्था और न्यायव्यवस्था से ही देश को चलाया जाए। क्योंकि उसी में ऐसे सूत्र उपलब्ध थे जो व्यक्ति व्यक्ति के मध्य वास्तव में न्याय कर सकने में सक्षम और समर्थ थे। गांव के पटेल फौजदारी वादों की जांच करते थे। राज्य की आय का साधन भूमिकर था, परंतु चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था। शिवाजी अपने को मराठों का सरदेशमुख कहते थे और सरदेशमुख के रूप में ही वह सरदेशमुखी कर वसूल करते थे। 

छत्रपति शिवाजी महाराज ने 17वीं शताब्दी में हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की थी। 6 जून 1674 को अपूर्व भव्यता के साथ आप छत्रपति “सर्वोच्च संप्रभु” के रूप में सिंहासन पर बैठे। आप एक साहसी एवं संकल्पित योद्धा थे। इस महान घड़ी के आने के पूर्व मुगल शासकों को भारत के कई राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करते हुए बहुत लम्बा समय हो चला था। विभाजित और पराजित हिंदू समाज निराश और कुंठित था। लम्बे इस्लामी शासन ने इसे असहाय, आत्मविश्वासहीन और अस्थिर बना दिया था। अतः यह कहा जाता है कि मराठा शासन का उदय मुगल शासकों के अंत की शुरुआत थी। वर्ष 1646 में शिवाजी महाराज ने आदिल शाही सल्तनत को चुनौती देते हुए तोरण किले पर कब्जा कर लिया था। इस साहसिक विजय ने मुगल साम्राज्य और आदिल शाही सल्तनत जैसी दुर्जेय शक्तियों को स्तब्ध कर दिया था। इसके बाद तो शिवाजी महाराज ने कई मुगल शासकों के दांत खट्टे किए थे। इसलिए आज भी यह माना जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिससे संप्रभु और शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य की नींव पड़ी थी। यह साम्राज्य गुप्त, मौर्य, चोल, अहोम एवं विजयनगर साम्राज्य की ही तरह शक्तिशाली, सुसंगठित और सुशासित था। शिवाजी महाराज ने एक महान हिंदवी साम्राज्य की स्थापना कर न केवल हिंदुओं की सुप्त चेतना को जागृत किया था, बल्कि उन्हें संगठित करते हुए विभाजनकारी और दमनकारी इस्लामी शासन को खुली चुनौती भी दी। उन्होंने भारतीय अस्मिता, सनातन संस्कृति को पुनर्जीवित करने और मंदिरों के संरक्षण और निर्माण कार्य पर सर्वाधिक बल दिया। आज शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 350 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में पूरे देश में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाने के प्रयास हो रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा भी इसे एक पर्व के रूप में मनाए जाने का आह्वान किया है तथा संघ की देश भर में फैली शाखाओं द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाने की योजना है।