भारतीय बैंकिंग उद्योग में रेग्युलेटर की भूमिका है महत्वपूर्ण  

अभी हाल ही के समय में देश के कुछ बैंकिंग संस्थानों में कुछ वित्तीय समस्याएँ उभर कर सामने आई हैं। इनमें मुख्य रूप से येस बैंक, पंजाब एवं महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक एवं आईएलएंडएफएस का नाम यहाँ लिया जा सकता है। देश में वित्तीय संस्थानों का विनियमन मुख्य रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक के पास है। कोआपरेटिव बैंकों की स्थिति में ज़रूर कुछ विनियमन सम्बंधित राज्य सरकारों के पास भी है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इन विनियामकों  के पास विनियमन से सम्बंधित पर्याप्त अधिकार मौजूद हैं एवं ये विनियामक  इन अधिकारों का उपयोग ठीक तरीक़े से कर रहे हैं। यदि हाँ, तो फिर उक्त बैंकिंग संस्थानों में वित्तीय समस्याएँ क्यों उत्पन्न हो रही हैं ? 

किसी भी देश में जब आर्थिक विकास तेज़ गति से हो रहा होता है तो उधार कर्ताओं द्वारा बैंकों से लिए गए ऋणों का भुगतान समय पर किया जाता है। परंतु, यदि आर्थिक गतिविधियों में कुछ सुस्ती आने लगती है तो बैंकों के ऋणों का भुगतान भी अटक जाता है एवं ये ऋण ग़ैर निष्पादनकारी आस्तियों में बदलने लगते हैं जिन पर बैंकों को पर्याप्त पूँजी का प्रावधान करना होता है। यहीं से समस्या प्रारम्भ होने लगती है क्योंकि अतिरिक्त पूँजी जुटाना कई बार बैंकों के लिए आसान कार्य नहीं होता है। येस बैंक की स्थिति में भी  लगभग यही हुआ है अतः भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा पर्याप्त एवं उचित आँकलन के बाद ही येस बैंक को मॉरटॉरीयम के अंतर्गत लाया गया हैं एवं भारतीय स्टेट बैंक के एक कुशल एवं अनुभवी कार्यपालक को प्रशासक के तौर पर नियुक्त किया गया है ताकि शीघ्र ही येस बैंक के आंतरिक संचालन सम्बंधी गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाया जा सके। 

आर्थिक जगत में यह कहा जा रहा है कि येस बैंक की स्थिति में भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपना उक्त निर्णय लेने में कुछ ज़्यादा समय ले लिया। अगर यही निर्णय कुछ समय पहिले ले लिए जाते तो शायद अच्छा रहता। परंतु, यदि विनियामक किसी बैंक के ऊपर जल्दबाज़ी में इस तरह की कार्यवाही करता है तो उस पर आरोप लग सकता है कि विनियामक ने उक्त बैंक को अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था करने हेतु उचित समय ही नहीं दिया। साथ ही, विनियामक द्वारा यदि किसी भी बैंक की वित्तीय समस्याओं को उजागर किया जाता है तो उस बैंक के ग्राहकों का विश्वास उस बैंक से उठ सकता है एवं शायद यह स्थिति उस बैंक को सम्हलने का मौक़ा ही न दे। अतः विनियामक के लिए यह एक संवेदनशील मुद्दा बन जाता है।  
    
हमारे देश में विनियमन से सम्बंधित प्रायः तीन समस्याएँ देखने में आती हैं। पहिला, देश में कोआपरेटिव बैंकों का विनियमन बहुस्तरीय है। भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ साथ सम्बंधित राज्य सरकारें भी कोआपरेटिव बैंकों को विनियमित करती हैं। अतः यहाँ पर विनियामक सम्बंधी अंतर पाया जाता है। इसे दूर किया जाना आवश्यक है। दूसरा, विनियामक द्वारा बैंकों की निगरानी कितने अच्छे तरीक़े से की जा रही है। इसे भी देखने की आवश्यकता है। तीसरा, क्या विनियामक के पास पर्याप्त क्षमता मौजूद है। भारत में वित्तीय क्षेत्र में विनियमन से सम्बंधित जो समस्याएँ देखने में आ रही हैं, वह उक्त तीन कारणों के चलते ही देखने में आ रही हैं। 

विनियमन के अंतर को कम करने का प्रयास वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है। इस क्षेत्र में कई सुधार लागू किए जा चुके हैं। 

निगरानी की गुणवत्ता कैसी है। इस मुद्दे को भी गहराई से देखने की आज आवश्यकता है। येस बैंक की समस्या पिछले कुछ समय से दिखाई दे रही थी परंतु शायद सही समय पर पकड़ नहीं पाए एवं ठीक नहीं कर पाए। यहाँ विनियामक की समस्या यह है कि कब घोषणा करे कि बैंक में वित्तीय समस्या गम्भीर हो गई है। क्योंकि विनियामक के इस प्रकार की घोषणा के साथ ही बैंक पर ग्राहकों का विश्वास टूट जाता है। अतः विनियामक यदि जल्दी निर्णय ले तो भी समस्या एवं देर से निर्णय ले तो भी समस्या। बैंकिंग क्षेत्र दरअसल विश्वास के ऊपर चलता है। अतः विनयामक के लिए यह एक संवेंदनशील मुद्दा है। इस प्रकार विनयामक अक्सर अंत में आकर ही समस्या को गम्भीर समस्या घोषित करता है जब पूरा समय सम्बंधित बैंक को दिया जा चुका होता है एवं बैंक इस समस्या को ठीक नहीं कर पाता है।

विनियमन सम्बंधी कार्यवाही हर वक़्त दिखनी भी नहीं चाहिए। यदि बार बार जनता के बीच इस प्रकार की कार्यवाही को दिखाया जाएगा तो ग्राहकों का विश्वास बैंक पर से उठ जाएगा। परंतु आंतरिक कार्यवाही लगातार जारी रहनी चाहिए एवं विनियामक द्वारा प्रदान की जा रही तिमाही प्रतिवेदनों पर त्वरित कार्यवाही सुनिशचित की जानी चाहिए। 

विनियामक की क्षमता बढ़ाने का प्रयास भी लगातार किए जाने की आज आवश्यकता है क्योंकि देश के वित्तीय क्षेत्र में विनियमन का कार्य मुख्य रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक के पास ही है। परंतु, आज यह देखना आवश्यक हो गया है कि भारतीय रिज़र्व बैंक के पास क्षमता कितनी है। अभी यह भी कहा जा रहा है कि देश में आवास वित्त प्रदान करने वाली कम्पनियों को भी भारतीय रिज़र्व बैंक के विनियमन के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत लाया जाएगा। 

वित्तीय क्षेत्र की कमज़ोरी पर हमारी बैचैनी इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि वित्तीय क्षेत्र अर्थव्यवस्था के अन्य घटकों को भी विपरीत रूप से प्रभावित कर लेता है। इसलिए, वित्तीय क्षेत्र क्षोध-अक्षमता समाधान सम्बंधी क़ानून को उचित तरीक़े एवं शीघ्र लागू किए जाने की आज सख़्त आवश्यकता है। केवल मज़बूत क़ानूनी प्रावधान होना ही काफ़ी नहीं है परंतु इसे शीघ्र परिणाम पाने के उद्देश्य से लागू किया जाना भी अति महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में भी हालाँकि केंद्र सरकार द्वारा लगातार कार्य एवं प्रयास किया जा रहा है।   


वर्ष 1991 में देश में निजीकरण की नीतियों को लागू करने के बाद से तो विनियामक  की भूमिका का विस्तार हुआ ही है क्योंकि निजी क्षेत्र आक्रामक एवं लोभी होता है एवं वह अधिक लाभ कमाने के चक्कर में जोखिम भरे निर्णय लेने में भी नहीं हिचकता है। अतः इन परिस्थितियों में विनियामक को अधिक सजग रहने की आवश्यकता रहती है। येस बैंक भी निजी क्षेत्र के कुछ मुख्य सबसे बड़े बैंकों में से एक था एवं बहुत अच्छा कार्य कर रहा था। परंतु, शिखर प्रबंधन से शायद कुछ चूक हुई है। इसीलिए भारतीय रिज़र्व बैंक ने प्रमोटर को हटाकर, नए मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति की अनुमति दी थी। अंततः भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा येस बैंक के लिए अतिरिक्त पूँजी जुटाने के उद्देश्य से भारतीय स्टेट बैंक को आगे लाया गया है। इससे बैंक के वर्तमान ग्राहकों का विश्वास बैंक पर वापिस आ जाएगा एवं बैंक अपने कार्यों को सुचारू रूप से पुनः प्रारम्भ कर लेगा, ऐसी उम्मीद आर्थिक जगत में की जा रही है।