देवऋषि श्री नारद जी लोक कल्याणकारी संदेशवाहक एवं लोकसंचारक थे
संदेशवाहक सामान्यतः दो तरीके के काम करता है। वह चाहे तो अपनी समझदारी का उपयोग करते हुए उलझे मुद्दों को सुलझा सकता है अथवा अपनी नादानी से उलझे हुए मुद्दों में और अधिक परेशानी खड़ी कर सकता है। यह सब निर्भर करता है कि संदेशवाहक अपनी बात को किस अन्दाज में प्रस्तुत कर रहा है।
देवऋषि श्री नारद जी इस ब्रह्मांड के बहुत ही सुलझे हुए संदेशवाहक माने जाते हैं। वे न केवल एक सुलझे हुए संदेशवाहक थे बल्कि अपनी पूरी चालाकी से अपने प्रभु परमात्मा के मन की बातों को भांपकर, उसी अनुसार अपने संदेश को इस प्रकार हंसते-हंसते प्रवाहित करते थे, कि जिसे संदेश दिया जा रहा है वह देवऋषि श्री नारद जी की राय के अनुसार ही उस कार्य को सम्पन्न करने की ओर प्रोत्साहित होने लगता था और इस प्रकार प्रभु परमात्मा के कार्यों को श्री नारद जी बहुत ही आसान कर देते थे।
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में देवऋषि श्री नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवऋषि श्री नारद जी वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ (रहस्य को जानने वाले), देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद (वीणा के आविष्कारक), प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं।
परंतु आज हम सभी के लिए यह एक अति कष्ट देने वाला विषय है कि भारत के प्रकांड विद्वान देवऋषि श्री नारद जी का धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में ऐसा चरित्र-चित्रण हो रहा है कि वह देवऋषि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारद जी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि चुगलखोरी करने वाले, लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। इससे कहीं न कहीं सनातन धर्म में आस्था रखने वाले धर्मावलंबियों की भावनाएं आहत होती हैं एवं देवऋषि श्री नारद जी के इस प्रकार के चित्रण पर निश्चित ही अंकुश लगाया जाना चाहिए। उक्त गल्त धारणा के ठीक विपरीत देवऋषि श्री नारद जी धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते थे। शास्त्रों में उन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सभी लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में देवऋषि श्री नारद जी का सदा से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।
देवऋषि श्री नारद जी के नाम का अर्थ कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है कि “नारद” शब्द में नार शब्द का अर्थ जल होता है। अर्थात, ये सभी को जलदान, ज्ञानदान व तर्पण करने में मदद करने के कारण “नारद” कहलाए।
देवऋषि श्री नारद जी के बारे में हिन्दू शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि वे बृह्मा जी के पुत्र हैं, विष्णु जी के भक्त और बृहिस्पति जी के शिष्य हैं। उनके तीनों लोकों में भ्रमण के कारण उन्हें एक लोक कल्याणकारी संदेशवाहक और लोकसंचारक के रूप में माना जाता है क्योंकि प्राचीन काल में संवाद, संचार, व्यवस्था मुख्यतः मौखिक ही होती थी और मेले, तीर्थ यात्रा, यज्ञादि कार्यक्रमों के निमित्त लोग जब इकट्ठे होते थे तो सूचनाओं का आदान प्रदान करते थे। देवऋषि श्री नारद जी इधर उधर घूमते हुए संवाद संकलन का कार्य करते थे और आपके लगातार प्रवास पर बने रहने का मुख्य उद्देश्य ही भक्त की पुकार को भगवान विष्णु तक पहुंचाना था। इस प्रकार, देवऋषि श्री नारद जी तो समाचार ही लेकर आते थे। समाचारों का संवाहन ही देवऋषि श्री नारद के जीवन का मुख्य कार्य था, इसलिए उन्हें आदि पत्रकार माना जाय तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।
समाचारों के संवाहक के रूप में देवऋषि श्री नारद जी की सर्वाधिक विशेषता उनका समाज हितकारी होना है। देवऋषि श्री नारद जी के किसी भी संवाद ने देश या समाज का अहित नहीं किया। कुछ ऐसे संदर्भ आते जरूर हैं, जिनमे लगता है कि देवऋषि श्री नारद जी दो व्यक्तियों के बीच कलह पैदा कर रहे हैं, परंतु जब उस संवाद का दीर्घकालीन परिणाम देखा गया तो अंततोगत्वा यह पाया गया कि वह किसी न किसी तरह सकारात्मक परिवर्तन के लिए ही ऐसा करते थे। इस प्रकार तो देवऋषि श्री नारद जी को विश्व का सर्वाधिक कुशल लोकसंचारक मानते हुए पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त ही प्रतिपादित किया जा सकता है कि “पत्रकारिता का धर्म समाज का हित करना ही होना चाहिए”।
इसी सम्बंध में एक दृष्टांत का वर्णन किया जा सकता है कि जब भारत के प्रथम हिंदी साप्ताहिक “उदंतमार्तंड” का 30 मई 1826 को कोलकता से प्रारम्भ किया जा रहा था तब इस साप्ताहिक के सम्पादक महोदय ने आनंद व्यक्त करते हुए कहा था कि देवऋषि श्री नारद जी की जयंती (वैशाख कृष्ण द्वितीया) के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रकाशित होने जा रही है क्योंकि देवऋषि श्री नारद जी एक आदर्श संदेशवाहक होने के नाते तीनों लोकों में समान एवं सहज रूप से संचार करते थे। देवऋषि श्री नारद जी अन्य ऋषियों, मुनियों से इस प्रकार से भिन्न थे कि उनका कोई अपना आश्रम नहीं था। वे निरंतर प्रवास पर रहते थे तथा उनके द्वारा प्रेरित हर घटना का परिणाम सदैव लोक हित में ही रहा है। इसलिए वर्तमान संदर्भ में यदि नारद जी को आज तक के विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक कहा जाए तो इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसीलिए, हिन्दू संस्कृति में शुभ कार्य के लिए जैसे विद्या के उपासक श्री गणेश जी का आह्वान करते हैं वैसे ही आज सम्पादकीय कार्य प्रारम्भ करते समय देवऋषि श्री नारद जी का आह्वान किया जाता है।
देवऋषि श्री नारद जी द्वारा रचित नारद भक्ति सूत्र बहुत प्रसिद्ध है। इन 84 भक्ति सूत्रों का यदि सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो यह ध्यान में आता है कि यह केवल पत्रकारिता ही नहीं बल्कि पूरे मीडिया के लिए शाश्वत सिद्धांतों को दर्शाता है। इन भक्ति सूत्रों के अनुसार, जाति, विद्या, रूप, कुल, दान, जैसे कार्यों के कारण पत्रकारिता द्वारा भेद नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही, भक्ति सूत्र 72 में एकात्मता को पोषित करने वाला अत्यंत सुंदर वाक्य है, जिसमें देवऋषि श्री नारद जी समाज में भेद उत्पन्न करने वाले कारकों को बताकर उनको निषेध करते हैं। आज के समय में यह सूत्र कितना प्रासांगिक है।
आज जब विभिन्न देशों के बीच छोटे छोटे मुद्दों को लेकर विवाद इतने बढ़ जाते हैं कि वे आपस में जंग करने की स्थिति निर्मित कर लेते हैं और कई बार तो ऐसा आभास होने लगता है कि इन दो देशों की सीधी आपस की लड़ाई कहीं विश्व युद्ध में परिवर्तित न हो जाए। ऐसे समय में देवऋषि श्री नारद जी की याद आना बहुत ही स्वाभाविक है। आज इस धरा पर इस प्रकार का कोई व्यक्ति उपलब्ध नहीं है जो देवऋषि श्री नारद जी की भूमिका में आकर झगड़े के असली कारणों को खोजकर इन मुद्दों को सफलतापूर्वक सुलझा सके। बल्कि देखने में तो यह आता है कि विश्व के समस्त देश ही दो देशों के छोटे छोटे विवादों के मामलों पर अपने आप को किसी एक देश के पीछे खड़े रखकर विवाद को तूल देने लगते हैं और ऐसा लगने लगता ही कि ये समस्त देश वैश्विक स्तर पर जैसे दो खेमों में बंटने लगे है, और इस प्रकार विश्व युद्ध की संभावनाओं को जन्म देने लगते हैं। वैसे आजकल की प्रचिलित नीति के अनुसार, विभिन्न देश अन्य देशों में अपनी एंबेसी खोलते समय राजदूतों की नियुक्ति करते हैं। आज के माहौल को देखते हुए एंबेसी के समस्त कर्मचारियों एवं देश में आज के पत्रकारों को श्री नारद पुराण एवं अन्य भारतीय पुराणों की शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि एंबेसी के कर्मचारी अपने देश के हितों को ध्यान में रखते हुए दूसरे देशों में साथ सम्बन्धों को सुधारने का लगातार प्रयास करते रहें। साथ ही छोटे छोटे मुद्दों को किसी भी प्रकार उस स्तर तक न आने दें कि दो देशों के बीच आपस में झगड़े की नौबत निर्मित हो जाए। इसी प्रकार, पत्रकारों को देश हित को सर्वोपरि रखते हुए ही अपनी पत्रकारिता करनी चाहिए ताकि देश के आंतरिक माहौल को स्वस्थ रखा जा सके एवं इसमें किसी भी प्रकार के विष घोलने का प्रयास कदाचित नहीं होना चाहिए। इस संदर्भ में, श्री नारद पुराण पत्रकारों की कार्यप्रणाली को उच्च मानकों पर बनाए रखने में मदद कर सकता हैं।
0 Comments
Post a Comment