श्रम को पूंजी का दर्जा देकर आर्थिक विकास को दी जा सकती है गति
आर्थिक क्षेत्र के संदर्भ में साम्यवाद एवं पूंजीवाद दोनों ही विचारधाराएं भौतिकवादी हैं और इन दोनों ही विचारधाराओं में आज तक श्रम एवं पूंजी के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाया है। इस प्रकार, श्रम एवं पूंजी के बीच की इस लड़ाई ने विभिन्न देशों में श्रमिकों का तो नुकसान किया ही है साथ ही विभिन्न देशों में विकास की गति को भी बाधित किया है। आज पश्चिमी देशों में उपभोक्तावाद के धरातल पर टिकी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं पर भी स्पष्टतः खतरा मंडरा रहा है। 20वीं सदी में साम्यवाद के धराशायी होने के बाद एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि साम्यवाद का हल पूंजीवाद में खोज लिया गया है। परंतु, पूंजीवाद भी एक दिवास्वप्न ही साबित हुआ है और कुछ समय से तो पूंजीवाद में छिपी अर्थ सम्बंधी कमियां धरातल पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी है। पूंजीवाद के कट्टर पैरोकार भी आज मानने लगे हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के दिन अब कुछ ही वर्षों तक के लिए सीमित हो गए हैं और चूंकि साम्यवाद तो पहिले ही पूरे विश्व में समाप्त हो चुका है अतः अब अर्थव्यवस्था सम्बंधी एक नई प्रणाली की तलाश की जा रही है जो पूंजीवाद का स्थान ले सके। वैसे भी, तीसरी दुनियां के देशों में तो अभी तक पूंजीवाद सफल रूप में स्थापित भी नहीं हो पाया है।
किसी भी आर्थिक गतिविधि में सामान्यतः पांच घटक कार्य करते हैं - भूमि, पूंजी, श्रम, संगठन एवं साहस। हां, आजकल छठे घटक के रूप में आधुनिक तकनीकि का भी अधिक इस्तेमाल होने लगा है। परंतु पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में चूंकि केवल पूंजी पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है अतः सबसे अधिक परेशानी, श्रमिकों के शोषण, बढ़ती बेरोजगारी, समाज में लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता और मूल्य वृद्धि को लेकर होती है। पूंजीवाद के मॉडल में उपभोक्तावाद एवं पूंजी की महत्ता इस कदर हावी रहते है कि उत्पादक लगातार यह प्रयास करता है कि उसका उत्पाद भारी तादाद में बिके ताकि वह उत्पाद की अधिक से अधिक बिक्री कर लाभ का अर्जन कर सके। पूंजीवाद में उत्पादक के लिए चूंकि उत्पाद की अधिकतम बिक्री एवं अधिकतम लाभ अर्जन ही मुख्य उद्देश्य है अतः श्रमिकों का शोषण इस व्यवस्था में आम बात है। आज तक भी उत्पादन के उक्त पांच/छह घटकों में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सका है। विशेष रूप से पूंजीपतियों एवं श्रमिकों के बीच टकराव बना हुआ है। पूंजीपति, श्रमिकों को उत्पादन प्रक्रिया का केवल एक घटक मानते हुए उनके साथ कई बार अमानवीय व्यवहार करते पाए जाते हैं। जबकि श्रमिकों को भी पूंजी का ही एक रूप मानते हुए, उनके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए। इस संदर्भ में राष्ट्र ऋषि श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना कर श्रमिकों को उनका उचित स्थान दिलाने के उद्देश्य से कुछ गम्भीर प्रयास अवश्य किए थे।
श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी का जन्म 10 नवम्बर, 1920 को, दीपावली के दिन, महाराष्ट्र के वर्धा जिले के आर्वी नामक ग्राम में हुआ था। श्री दत्तोपंत जी के पित्ताजी श्री बापूराव दाजीबा ठेंगड़ी, सुप्रसिद्ध अधिवक्ता थे, तथा माताजी, श्रीमती जानकी देवी, गंभीर आध्यात्मिक अभिरूची से सम्पन्न थी। उन्होंने बचपन में ही अपनी नेतृत्व क्षमता का आभास करा दिया था क्योंकि मात्र 15 वर्ष की अल्पायु में ही, आप आर्वी तालुका की ‘वानर सेना’ के अध्यक्ष बने तथा अगले वर्ष, म्यूनिसिपल हाई स्कूल आर्वी के छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गये थे। श्री दत्तोपंत जी ने बाल्यकाल से ही अपने आप को संघ के साथ जोड़ लिया था। दिनांक 22 मार्च 1942 को संघ के प्रचारक का चुनौती भरा दायित्व स्वीकार कर आप सुदूर केरल प्रान्त में संघ का विस्तार करने के लिए कालीकट पहुंच गए थे।
वर्ष 1949 में परम पूजनीय श्री गुरूजी ने देश में श्रमिकों की दयनीय स्थिति को देखते हुए, श्री दत्तोपंत जी को, श्रम क्षेत्र का अध्ययन करने को कहा। इस प्रकार श्री दत्तोपंत जी के जीवन में एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। श्री दत्तोपंत जी ने इंटक में प्रवेश किया। अपनी प्रतिभा और संगठन कौशल के बल पर थोड़े समय में ही इंटक से सम्बधित नौ युनियनों ने, श्री दत्तोपंत जी को, अपना पदाधिकारी बना दिया। कम्यूनिस्ट यूनियन्स और सोशलिस्ट यूनियन्स की कार्य पद्धति जानने के उद्देश्य से 1952 से 1955 के कालखंड में आप कम्युनिस्ट प्रभावित एक मजदूर संगठन के प्रांतीय संगठन मंत्री रहे। इसी कालखंड में (1949 से 1955) आपने कम्युनिज्म का गहराई से अध्ययन किया।
23 जुलाई 1955 को, भोपाल में, श्री दत्तोपंत जी द्वारा भारतीय मजदूर संघ की, एक अखिल भारतीय केन्द्रीय कामगार संगठन के रूप में स्थापना की गई। मात्र तीन दशक में ही, उस समय के सबसे बड़े, और कांग्रेस से सम्बन्ध मजदूर संगठन इण्डियन नेशनल ट्रेड युनियन कॉग्रेस INTUC को भारतीय मजदूर संघ ने पीछे छोड़ दिया। वर्ष 1989 में, भारतीय मजदूर संघ की सदस्य संख्या 31 लाख थी, जो कम्युनिस्ट पार्टियों से सम्बन्ध, एटक AITUC तथा सीटू CITU की सम्मलित सदस्यता से भी अधिक थी। वर्ष 2012 की गणना के अनुसार भारतीय मजदूर संघ की सदस्य संख्या 1 करोड़ 71 लाख से अधिक है।
साम्यवाद एवं पूंजीवाद की अवधारणाओं के बाद श्री दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानव दर्शन पर सर्वाधिक चर्चा हुई है। श्री उपाध्याय जी ने भारतीय चिंतन के पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) को जीवन विकास यात्रा का मूलाधार माना है। साम्यवाद और पूंजीवाद केवल अर्थ पर ही रुका हुआ है लेकिन भारतीय जीवन दर्शन का आधार धर्म, अर्थ और काम तीनों हैं। इन तीनों की साधना से मानव दर्शन विकसित होता है। अर्थ और काम की साधना पर धर्म की सीमा रेखा होना चाहिए अन्यथा अराजकता फैल सकती है और यही कुछ वर्तमान में पूंजीवादी अर्थव्यस्थाओं में होता दिख रहा है।
श्री दत्तोपंत जी भी एकात्म मानव दर्शन को ही साम्यवाद व पूंजीवाद का एक विकल्प मानते थे। इसी संदर्भ में श्री ठेंगड़ी जी का कहना था कि श्रम को पूंजी का दर्जा दिया जाना चाहिए ताकि किसी भी उत्पादन प्रक्रिया में पूंजी का निवेश करने वाला और श्रम का निवेश करने वाला बराबर का हिस्सेदार बन सके। श्रमिकों के दो हाथ, जिनसे वह श्रम करता है, उसकी पूंजी ही तो हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम को खरीदने की परंपरा है परंतु श्रम को यदि पूंजी का दर्जा दे दिया जाएगा तो श्रमिक भी उत्पादन प्रक्रिया में बराबर का हिस्सेदार बन जाएगा। इस प्रकार, पूंजी और श्रम में सामंजस्य स्थापित किया जा सकेगा।
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