स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन 12 जनवरी पर विशेष आलेख 


स्वामी विवेकानंद ने विश्व को हिन्दू सनातन धर्म से परिचित कराने के किए थे प्रयास 


आज पूरा विश्व ही जैसे हिन्दू सनातन संस्कृति की ओर आकर्षित होता दिख रहा है। आज विश्व के लगभग समस्त देशों में भारतीय न केवल शांतिपूर्ण ढंग से निवास कर रहे हैं बल्कि हिन्दू सनातन संस्कृति का अनुपालन भी अपनी पूरी श्रद्धा के साथ कर रहे हैं। भारत ने हिन्दू सनातन संस्कृति का अनुसरण करते हुए कोरोना महामारी की प्रथम एवं द्वितीय लहर को जिस प्रकार से सफलतापूर्वक नियंत्रित किया था, उससे प्रभावित होकर आज वैश्विक स्तर पर भारत की साख बढ़ी है और हिन्दू सनातन संस्कृति का अनुसरण आज पूरा विश्व ही करना चाहता है। हाल ही में इंडोनेशिया, अमेरिका, जापान, रूस, चीन, जर्मनी आदि अन्य कई देशों में हिन्दू सनातन धर्म को अपनाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। विदेशों में हिन्दू सनातन संस्कृति की ओर लोगों का आकर्षण एकदम नहीं बढ़ा है इसके लिए बहुत लम्बे समय से भारत के संत, महापुरुषों एवं मनीषियों द्वारा प्रयास किए जाते रहे हैं। विशेष रूप से स्वामी विवेकानंद जी द्वारा इस क्षेत्र में किए गए कार्यों को आज उनके जन्म दिवस पर याद किया जा सकता है।    


स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकत्ता में हुआ था। आपका बचपन का नाम श्री नरेंद्र नाथ दत्त था। बचपन से ही आपका झुकाव आध्यात्म की ओर था। आपने श्री रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा ली थी एवं अपने गुरु जी से बहुत अधिक प्रभावित थे। आपने बचपन में ही अपने गुरु जी से यह सीख लिया था कि सारे जीवों में स्वयं परमात्मा का अस्तित्व है अतः जरूरतमंदों की मदद एवं जन सेवा द्वारा भी परमात्मा की सेवा की जा सकती है। अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात स्वामी विवेकानंद जी ने  भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में विचरण यह ज्ञान हासिल करने के उद्देश्य से किया था कि ब्रिटिश शासनकाल में इन देशों में निवास कर रहे लोगों की स्थिति कैसी है। कालांतर में वे स्वयं वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु बन गए थे। आपको वर्ष 1893 में शिकागो, अमेरिका में आयोजित की जा रही विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला था। विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद जी को अपनी बात रखने के लिए केवल दो मिनट का समय दिया गया था परंतु उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत ही “मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाईयों” कहकर की थी, इस सम्बोधन से प्रभावित होकर समस्त उपस्थित प्रतिनिधियों ने खड़े होकर बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट की बीच स्वामी विवेकानंद जी का अभिवादन किया था। स्वामी विवेकानंद जी के इस प्रथम वाक्य ने ही वहां उपस्थित सभी प्रतिनिधियों का दिल जीत लिया था।     


स्वामी विवेकानंद जी ने अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोपीयन देशों में  कई निजी एवं सार्वजनिक व्याख्यानों का आयोजन कर महान हिन्दू संस्कृति के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार किया एवं उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन विश्व के कई देशों में स्वामी विवेकानंद जी द्वारा उस समय किए गए प्रसार की कड़ी के माध्यम से ही पहुंच सका है। केवल 39 वर्ष की आयु में दिनांक 4 जुलाई 1902 को स्वामी विवेकानंद जी ने सदगदी प्राप्त की थी। भारत में आज स्वामी विवेकानंद जी को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में जाना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। केवल 39 वर्ष के अपने जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जी ने देश के लिए किए जो कार्य किए, वे कार्य आने वाली शताब्दियों तक भारत में याद किए जाते रहेंगे। परम पूज्य गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था कि "यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।” स्वामी विवेकानंद जी केवल संत ही नहीं थे बल्कि एक महान विचारक, देशभक्त, मानवप्रेमी एवं कुशल वक्ता भी थे। 


ऐसा कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद जी भारत में उस समय की शिक्षा पद्धति से भी बिलकुल संतुष्ट नहीं थे। वे अक्सर कहते थे कि शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके। शिक्षा के माध्यम से बालक के चरित्र का निर्माण होना चाहिए, मन का विकास होना चाहिए, बुद्धि का विकास होना चाहिए ताकि बालक अपने जीवन में आत्म निर्भरता हासिल कर सके। हालांकि एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारों बार ठोकर खाने के बाद ही होता है अतः हमें इस संदर्भ में अपने प्रयास लगातार जारी रखने चाहिए एवं हिम्मत हारकर अपने प्रयासों को बीच में कभी नहीं छोड़ना चाहिए। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने विचारों के माध्यम से यह भी बताया है कि पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है। वे न केवल बालक एवं बालिकाओं को समान शिक्षा देने के पक्षधर थे बल्कि उन्हें आचरण एवं संस्कारों के माध्यम से धार्मिक शिक्षा देने के भी पक्षधर थे। साथ ही, परिवार से ही मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा देने के बारे में भी कहते रहते थे। उनके अनुसार कुल मिलाकर शिक्षा इस प्रकार की हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ति प्रदान कर सके।


स्वामी विवेकानंद जी अपने ओजस्वी व्याख्यानों में बार बार यह आह्वान करते थे कि उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। उनके ये वाक्य उनके श्रोताओं को बहुत प्रेरणा देते थे। उनका यह भी कहना होता था कि हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है अतः हमें  अपने अंतर्मन एवं बाहरी स्वभाव को सुधारकर अपनी आत्मा की दिव्यता को पहचानना चाहिए।  कर्म, पूजा, अंतर्मन अथवा जीवन दर्शन के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है। जीवन में सफलता के राज खोलते हुए आप कहते थे कि कोई भी एक विचार लेकर उसे अपने जीवन का लक्ष्य बनायें एवं उसी विचार के बारे में सदैव सोचें, केवल उसी विचार का सपना देखते रहें और उसी विचार में ही जीयें। यही आपकी सफलता का रास्ता बन सकता है। आपके दिल, दिमाग और रगों में केवल यही विचार भर जाना चाहिए। इसी प्रकार ही आध्यात्मिक सफलता भी अर्जित की जा सकती है।