विकसित देशों द्वारा मुद्रा स्फीति की समस्या को नहीं सुलझा पाने के हो रहे गम्भीर परिणाम
कोरोना काल के बाद से कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रा स्फीति की समस्या विकराल रूप धारण करते हुए यह पिछले 40 से 50 वर्षों के अधिकतम स्तर पर पहुंच गई है। मुद्रा स्फीति की समस्या को हल करने के लिए इन देशों की केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की घोषणा करते जा रहे हैं। ब्याज दरों में वृद्धि इस उद्देश्य से की जा रही है ताकि इन देशों के नागरिक बैकों से ऋण लेने के लिए निरुत्साहित हो तथा वे अपनी बचतों को बैकों में जमा करने को प्रोत्साहित हो। इससे इन देशों के नागरिकों की खर्च करने की क्षमता कम होकर बाजार में उत्पादों की मांग कम हो जाए। बाजार में उत्पादों की मांग में कमी के चलते, इन उत्पादों की उपलब्धता, मांग की तुलना में, बाजार में बढ़ जाएगी जिससे इन उत्पादों की कीमतों में कमी होकर अंततः मुद्रा स्फीति पर अंकुश लग जाएगा।
उक्त प्रकार के उपायों के माध्यम से मुद्रा स्फीति पर तेजी से अंकुश लगता दिखाई नहीं दे रहा है। परंतु, इन देशों, विशेष रूप से अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे विकसित देशों, के केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में लगातार की जा रही वृद्धि के कारण इन देशों में कई उत्पाद जरूर महंगे होते जा रहे हैं क्योंकि ब्याज लागत के लगातार बढ़ते जाने से इन कम्पनियों की औसत उत्पादन लागत में वृद्धि हो रही है एवं इससे अंततः इन कम्पनियों की लाभप्रदता पर विपरीत प्रभाव पड़ता दिखाई दे रहा है। अब इन कम्पनियों ने अपनी लाभप्रदता को बनाए रखने के लिए, अमानवीय पूंजीवादी नीतियों को अपनाते हुए, कर्मचारियों की छंटनी का आसान तरीका अपना लिया है। विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की कई कम्पनियों ने नवम्बर 2022 के बाद से लगभग 2 लाख कर्मचारियों की छंटनी करने की घोषणा की है। विशेष रूप से अमेरिका की बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भी कर्मचारियों की छंटनी करने सम्बंधी घोषणाएं की हैं। जैसे, गूगल की मातृ संस्था अल्फाबेट ने 12,000 इंजिनीयरों की छंटनी की घोषणा की है। माइक्रोसोफ्त की 10,000 इंजिनीयरों (कम्पनी में कार्यरत कुल इंजिनीयरों की संख्या का 5 प्रतिशत) की छंटनी करने की योजना है। इसी प्रकार, एमेजोन द्वारा 18,000, फेसबुक की मातृ संस्था मेटा द्वारा 11,000 (कुल कर्मचारियों की संख्या का 13 प्रतिशत), ट्विटर द्वारा 7,500 कर्मचारियों की छंटनी करने की योजना बनाई गई है। कई कम्पनियों द्वारा तो भारी मात्रा में इंजिनीयरों एवं कर्मचारियों की छंटनी की भी जा चुकी है। इस प्रकार विकसित देशों द्वारा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से सबंधित उपायों को अपनाते हुए मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में लाने हेतु ब्याज दरों में लगातार की जा रही वृद्धि का उपाय भी भयावह अमानवीय परिणाम देता हुआ दिखाई दे रहा है।
उक्त वर्णित कई कम्पनियों द्वारा की जा रही छंटनी का सबसे अधिक असर अमेरिका में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य कर रहे भारतीय इंजिनीयरों पर पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। एक अनुमान के अनुसार, अमेरिका में होने वाले इंजिनीयरों की कुल छंटनी की संख्या में से 30 से 40 प्रतिशत के बीच भारतीय इंजिनीयरों की छंटनी होने जा रही है। विशेष रूप से एचवनबी वीजा प्राप्त भारतीय इंजिनीयरों पर कुछ अधिक प्रभाव पड़ता दिखाई दे रहा है। क्योंकि, इन इंजिनीयरों को इनकी छंटनी की स्थिति में 60 दिनों के अंदर अमेरिका में ही अन्य रोजगार प्राप्त करना आवश्यक होगा अन्यथा अगले 10 दिनों में उन्हें अमेरिका छोड़कर किसी अन्य देश में जाना होगा। इन इंजिनीयरों के छोटे छोटे बच्चे, जो अमेरिकी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, उनकी शिक्षा किस प्रकार प्रभावित होने जा रही है, यह हम केवल सोच ही सकते हैं। अतः इन विशेष परिस्थितियों के बीच निर्मित हुई उक्त समस्या का हल भारत सरकार एवं अमेरिकी सरकार द्वारा मिलकर सोचा जाना चाहिए। प्रभावित होने जा रहे इंजिनीयरों के लिए 60 दिनों के अंदर दूसरा रोजगार प्राप्त करने सम्बंधी नियम को समाप्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि मंदी के इस माहौल में किसी अन्य कम्पनी में भी रोजगार प्राप्त करना आसान कार्य नहीं है।
विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के इंजिनीयरों के लिए यह पल एक तरह से इम्तिहान के पल जैसे साबित हो रहे हैं। यह वर्ग अभी तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में अपना पूर्ण योगदान देता आया है। अमेरिकी सरकार का भी अब कर्तव्य बनता है कि आड़े वक़्त में इन इंजिनियरों को नया रोजगार प्राप्त करने में मदद करे अथवा नया रोजगार प्राप्त करने सम्बंधी 60 दिवस की सीमा को खत्म कर दे। यदि अमेरिका इस सम्बंध में कोई सकारात्मक निर्णय नहीं लेता है तो इतनी बड़ी संख्या में प्रशिक्षित इंजिनीयरों को वह खो देगा एवं दीर्घअवधि में अमेरिका के लिए यह घाटे का सौदा साबित होगा।
हालांकि भारत सरकार यदि चाहे तो अमेरिका में छंटनी का शिकार हो रहे इंजिनीयरों को भारत में ही नया रोजगार प्राप्त प्रदान करने सम्बंधी योजना पर भी विचार किया जा सकता है क्योंकि इंजिनीयरों का यह वर्ग उच्च शिक्षा प्राप्त एवं प्रशिक्षित वर्ग है। अमेरिका से भारत में वापिस लौटने वाले इंजिनीयरों को “रिवर्स ब्रेन ड्रेन” की संज्ञा भी दी जा सकती है और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह लाभकारी सिद्ध होगा। भारत में आर्थिक विकास की दर लगातार तेज हो रही है अतः भारत में प्रशिक्षित इंजिनीयरों की मांग भी बनी हुई है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ब्याज दर के लगातार बढ़ाते जाने से कई विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रा स्फीति तो नियंत्रण में नहीं आ पा रही है परंतु अन्य कई प्रकार की अन्य आर्थिक समस्याएं जरूर उभरती नजर आ रही हैं। जैसे, कम्पनियों के व्यवसाय में कमी होना, कम्पनियों की लाभप्रदता में कमी होना, कर्मचारियों की छंटनी होना, करों के संग्रहण में कमी होना एवं बेरोजगारी का बढ़ना, आदि। इस कारण से अब यह सोचा जाना चाहिए कि इन परिस्थितियों में मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों का बढ़ाते जाना क्या सही उपाय है। इस तरह के उपाय पूर्व में विकसित अर्थव्यवस्थाओं, जिन्होंने पूंजीवादी मॉडल के अनुसार अपने आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया है, द्वारा किए जाते रहे हैं। जबकि, अब यह उपाय बोथरे साबित हो रहे हैं। इन परिस्थितियों के बीच, उत्पादों की मांग कम करने के उपाय के स्थान पर उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाकर क्या इन समस्याओं का हल नहीं निकाला जाना चाहिए। विशेष रूप से मुद्रा स्फीति की समस्या उत्पन्न ही इसलिए होती है कि सिस्टम में उत्पादों की मांग की तुलना में आपूर्ति कम होने लगती है। कोरोना महामारी के दौरान एवं उसके बाद रूस एवं यूक्रेन युद्ध के कारण कई देशों में कई उत्पादों की आपूर्ति बाधित हुई है। जिसके कारण मुद्रा स्फीति इन देशों में फैली है। अब इन देशों द्वारा पूंजीवादी मॉडल को अपनाते हुए सिस्टम में उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाने के स्थान पर ब्याज दरों को बढ़ाकर इन उत्पादों की मांग कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो कि अपने आप में एक नकारात्मक परिणाम देने वाला उपाय है। अमेरिका में तो ब्याज दर बढ़ाने का असर मुद्रा स्फीति को कम करने में नहीं होता दिखाई दे रहा है। क्योंकि, अमेरिका में तो यहां के नागरिकों की औसत आय इतनी अधिक है कि उन्हें ब्याज दर के बढ़ने अथवा घटने से कोई खास अंतर नहीं पड़ता है, जिससे उत्पादों की मांग भी कुछ तेजी से कम नहीं हो पा रही है। अमेरिका में नागरिकों की संख्या से अधिक मार्गों पर चल रही कारों की संख्या है।
वर्ष 1929-30 में भी पश्चिमी देशों में इस प्रकार की स्थिति निर्मित हुई थी तो पूरे विश्व में हाहाकार मच गया था। इस विशेष स्थिति को “डिप्रेशन” अर्थात मंदी का नाम दिया गया था। मंदी आने का अर्थ था कि अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन अधिक हो जाने के कारण इन वस्तुओं के मूल्य गिर गए थे। मूल्य गिरने से इन उत्पादों का निर्माण करने वाली कम्पनियों के लाभ कम हो गए थे। कितनी विचित्र स्थिति है। बाजार में वस्तुओं के दाम कम होने से सर्वसामान्य नागरिक की सुविधा बढ़नी चाहिए और वह बढ़ती भी है, नागरिक को इस स्थिति में बहुत अच्छा महसूस होता है। परंतु, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सामान्य नागरिक की सुविधा के बारे में विचार नहीं किया जाता है। केवल कम्पनियों के लाभ बढ़ने-घटने पर विचार किया जाता है। यदि कम्पनियों का लाभ बढ़ा तो ठीक अन्यथा यह डिप्रेशन और अवांछनीय स्थिति में है, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार भारतीय आर्थिक चिंतन एवं पूंजीवादी आर्थिक चिंतन धाराओं में बहुत अंतर है। आज यदि “सर्वे भवंतु सुखिनः” का लक्ष्य पूरा करना है तो भारतीय वेदों में बताई गई विपुलता की अर्थव्यवस्था अधिक ठीक है। न कि जानबूझकर अकाल का निर्माण करने वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था।
पूंजीवादी आर्थिक चिंतन के विपरीत भारतीय आर्थिक चिंतन में विपुलता की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा गया है, अर्थात अधिक से अधिक उत्पादन करो - “शतहस्त समाहर, सहस्त्रहस्त संकिर” (सौ हाथों से संग्रह करके हजार हाथों से बांट दो) - यह हमारे शास्त्रों में भी बताया गया है। विपुलता की अर्थव्यवस्था में अधिक से अधिक नागरिकों को उपभोग्य वस्तुएं आसानी से उचित मूल्य पर प्राप्त होती रहती हैं, इससे उत्पादों के बाजार भाव बढ़ने के स्थान पर घटते रहते हैं। भारतीय वैदिक अर्थव्यवस्था में उत्पादों के बाजार भाव लगातार कम होने की व्यवस्था है एवं मुद्रा स्फीति के बारे में तो भारतीय शास्त्रों में शायद कहीं कोई उल्लेख भी नहीं मिलता है। भारतीय आर्थिक चिंतन व्यक्तिगत लाभ केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्थान पर मानवमात्र के लाभ को केंद्र में रखकर चलने वाली अर्थव्यवस्था को तरजीह देता है।
इसलिए विकसित देशों को भी आज ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करते हुए मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने के स्थान पर बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ाकर मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने के बारे में विचार करना चाहिए। इसी प्रकार, भारतीय आर्थिक चिंतन को अपनाकर पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में आ रही विभिन्न अन्य कई समस्याओं पर भी काबू पाया जा सकता है।
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