भगवान झूलेलाल के अवतरण दिवस पर विशेष लेख 


नव संवत्सर के दिन भगवान झूलेलाल का अवतरण हिंदू धर्म के रक्षार्थ हुआ था 


भारतीय हिंदू सनातन संस्कृति के अनुसार वसंत ऋतु का पहला हिस्सा पतझड़ का हुआ करता है अर्थात पेड़ों, झाड़ियों, बेलों और पौधों के पत्ते सूखने लगते हैं, पीले होते हैं और फिर मुरझाकर झड़ जाते हैं। परंतु कुछ समय पश्चात उन्हीं सूखी, वीरान शाखाओं पर नाजुक कोमल कोंपलें आनी शुरू हो जातीं, यहीं से वसंत ऋतु अपने उत्सव के शबाब पर पहुंचती है। इस प्रकार पतझड़ और वसंत साथ-साथ आते हैं मानो यह संदेश देते हुए कि अवसान-आगमन, मिलना-बिछ़ुडना, पुराने का खत्म होना-नए का आना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसी वसंत ऋतु में फागुन और चैत्र माह के महीने भी आते हैं। चैत्र माह के मध्य में प्रकृति अपने श्रृंगार एवं सृजन की प्रक्रिया में लीन रहती है और  पेड़ों पर नए नए पत्ते आने के साथ ही सफेद, लाल, गुलाबी, पीले, नारंगी, नीले रंग के फूल भी खिलने लगते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे पूरी की पूरी सृष्टि ही नई हो गई है, ठीक इसी वक्त भारत में हमारी भौतिक दुनिया में भी एक नए वर्ष का आगमन होता है। नव वर्ष को नव संवत्सर भी कहा जाता है।



 

भारत में प्रत्येक वर्ष नव संवत्सर की शुरूआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होती है। इस वर्ष 2023 में 22 मार्च, बुधवार, से हिंदू नववर्ष विक्रम संवत 2080 शुरू हो रहा है। समाज के विभिन्न वर्गों के नागरिक वर्ष प्रतिपदा को अलग अलग नामों से पुकारते हैं। सिंधी समुदाय नव वर्ष को चेटी चांद के नाम से पुकारते हैं। सिंध प्रांत के समाज रक्षक वरूणावतार भगवान झूलेलाल का इस धरा पर अवतरण भी इसी दिन हुआ था। अतः यह दिन सिंधी समाज बड़े ही उत्साह के साथ मनाता है। पूरे देशभर में सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन किया जाता है एवं झांकियां आदि निकाली जाती है।


भगवान झूलेलाल ने अपने भक्तों से कहा था कि मेरा वास्तविक रूप जल एवं ज्योति ही है। इसके बिना संसार जीवित नहीं रह सकता। आज भगवान झूलेलाल के अवतरण दिवस को सिंधी समाज चेटीचंड के रूप में बड़े उत्साह एवं जोश के साथ मनाता है। चेटीचंड हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र नवरात्रि के दूसरे दिन अर्थात चैत्र शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। चेटीचंड के दिन ही सिंधी नव वर्ष भी प्रारम्भ होता है।  चेटीचंड के दिन सिंधी स्त्री-पुरुष तालाब या नदी के किनारे दीपक प्रज्वलित कर जल देवता की पूजा अर्चना करते हैं। चेटीचंड के दिन सिंधी समाज के श्रद्धालु बहिराणा साहिब बनाते हैं। भव्य शोभा यात्रा निकालते हैं और ‘छेज’ (जो कि गुजरात के डांडिया की तरह लोकनृत्य होता है) के साथ झूलेलाल की महिमा के गीत गाते हैं। ताहिरी (मीठे चावल), छोले (उबले नमकीन चने) और शरबत का प्रसाद बांटा जाता है। शाम को बहिराणा साहिब का विसर्जन कर दिया जाता है।  इस दौरान सिंधी समुदाय के समस्त नागरिक सात्विक भोजन व्रत उपवास, फलाहार करते हैं। इन चालीस दिनों तक सिंधी लोग तामसी भोजन, मांस मदिरा का त्याग भी कर देते हैं।


जैसा कि सर्वविदित है कि प्राचीन भारत का इतिहास बहुत वैभवशाली रहा है। भारत माता को सही मायने में “सोने की चिड़िया” कहा जाता था एवं इस संदर्भ में भारत की ख्याति पूरे विश्व में फैली हुई थी। इसके चलते भारत माता को लूटने और इसकी धरा पर कब्जा करने के उद्देश्य से पश्चिम के रेगिस्तानी इलाकों से आने वाले मजहबी हमलावरों का वार सबसे पहले सिन्ध की वीरभूमि को ही झेलना पड़ता था। अविभाजित भारत में सिंध प्रांत को अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते किसी जमाने में भारत का द्वार भी माना जाता था। इसी कारण से सिंध प्रांत ने अरब देशों से भारत पर होने वाले आक्रांताओं के वार भी सबसे अधिक सहे हैं। सिंध के रास्ते ही आक्रांता भारत में आते थे। सिंध की पावन भूमि वैदिक संस्कृति एवं प्राचीन सभ्यता का केंद्र रही है एवं सिंध की पावन धरा पर कई ऋषि, मुनियों एवं संत महात्माओं ने जन्म लिया है। सिंधी समुदाय को भगवान राम के वंशज के रूप में भी माना जाता है। महाभारत काल में जिस राजा जयद्रथ का उल्लेख है वो सिंधी समुदाय का ही था। 


आज के बलोचिस्तान, ईरान, कराची और पूरे सिन्धु इलाके के राजा थे श्री दाहिरसेन जी। आप सिन्ध के अंतिम हिंदू शासक माने जाते हैं और आपने ही सिंध राज्य की सीमाओं का कन्नौज, कंधार, कश्मीर और कच्छ तक विस्तार किया था। आपका जन्म 663 ईसवी में हुआ था और 16 जून 712 ईसवी को इस महान भारत भूमि की रक्षा करते हुए उन्होंने बलिदान दे दिया था। श्री दाहिरसेन जी जिन्होंने युद्धभूमि में लड़ते हुए न केवल अपनी प्राणाहुति दी बल्कि उनके शहीद होने के बाद उनकी पत्नी, बहन और दोनों पुत्रियों ने भी अपना बलिदान देकर भारत में एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया था। राजा श्री दाहिरसेन जी एक प्रजावत्सल राजा थे। गौरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। सिंध राज्य के वैभव की कहानियां सुनकर ईरान के शासक हज्जाम ने 712 ईसवी में अपने सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को एक विशाल सेना देकर सिन्ध पर हमला करने के लिए भेजा। कासिम ने देवल के किले पर कई आक्रमण किए पर राजा श्री दाहिरसेन जी और उनके हिंदू वीरों ने हर बार उसे पीछे धकेल दिया। परंतु कई बार हारने के बावजूद अंततः मोहम्मद बिन कासिम ने अंतिम हिन्दू राजा श्री दाहिरसेन को विश्वासघात कर हरा दिया जिसके बाद सिंध को अल-हिलाज के खलीफा द्वारा अपने राज्य में शामिल कर लिया गया और खलीफा के प्रतिनिधियों द्वारा सिंध में शासन प्रशासन चलाया गया। इस्लामिक आक्रमणकारियों ने पूरे क्षेत्र में तलवार की नोंक पर लगातार हिन्दू धर्मावलम्बियों का धर्मांतरण किया और इस क्षेत्र में इस्लाम को फैलाया। 


समय के साथ साथ सिंध पर शासन करने वाले शासक भी बदलते रहे एवं एक समय सिंध की राजधानी थट्टा पर अत्याचारी, दुराचारी एवं कट्टर इस्लामिक आक्रमणकारी मिरखशाह का शासन स्थापित हो गया। उसने सिंध में एवं इसके आसपास के क्षेत्र में इस्लाम को फैलाने के लिए वहां के निवासियों का नरसंहार करना शुरू किया। मिरख शाह जिन सलाहकारों और मित्रों से घिरा हुआ था उन्होंने उसे सलाह दी थी कि यदि आप इस क्षेत्र में इस्लाम फैलाएंगे तो आपको मौत के बाद जन्नत या सर्वोच्च आनंद प्राप्त होगा। इस सलाह को सुनकर मिरख शाह ने उस इलाके के हिंदुओं के पंच प्रतिनिधियों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि इस्लाम को गले लगाओ या मरने की तैयारी करो। मिरखशाह की धमकी से डरे हिंदुओं ने इस पर विचार करने को कुछ समय मांगा जिस पर मिरखशाह ने उन्हें 40 दिन का समय दे दिया।


अपने सामने मौत और धर्म पर आए संकट को देखते हुए सिंधी हिंदुओं ने नदी (जल) के देवता श्री वरुण देव भगवान की ओर रूख किया। चालीस दिनों तक हिंदुओं ने तपस्या की। उन्होंने ना बाल कटवाए और ना ही भोजन किया। इस दौरान उपवास कर केवल ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करते रहे। सिंधी हिंदुओं की प्रार्थना के बाद भगवान झूलेलाल का अवतरण इस धरा पर हुआ। भगवान झूलेलाल ने अपने चमत्कारिक जन्म और जीवन से न सिर्फ सिंधी हिंदुओं के जान-माल की रक्षा की बल्कि हिन्दू धर्म को भी बचाए रखा। मिरख शाह जैसे न जाने कितने इस्लामिक कट्टर पंथी आए और धर्मांतरण का खूनी खेल खेला लेकिन भगवान झूलेलाल की वजह से सिंध में उस दौर में मुस्लिम आक्रांताओं के कहर पर अंकुश लगा रहा। 


आज सिंधी हिंदुओं द्वारा भगवान झूलेलाल को अपना उपास्य देव मानकर हैं उन्हें इष्ट देव कहा जाता है। सिंधी हिन्दू भगवान झूलेलाल को वरुण (जल देवता) का अवतार मानते हैं। वरुण देव को सागर के देवता, सत्य के रक्षक और दिव्य दृष्टि वाले देवता के रूप में सिंधी समाज पूजता है। उनका विश्वास है कि जल से सभी सुखों की प्राप्ति होती है और जल ही जीवन है। जल-ज्योति, वरुणावतार, झूलेलाल सिंधियों के ईष्ट देव हैं जिनके आगे दामन फैलाकर सिंधी समाज यही मंगल कामना करता है कि सारे विश्व में सुख-शांति कायम रहे और चारों दिशाओं में हरियाली और खुशहाली बनी रहे।