नवसंवत्सर के शुभ अवसर पर सिंध को भारत के साथ जोड़ने की लें प्रतिज्ञा  


अखंड भारत के पश्चिम में एक मजबूत, सम्पन्न एवं आकर्षक प्रांत हुआ करता था, जिसका नाम था सिंध। मजबूत इस दृष्टि से कि अरब देशों से मुस्लिम आक्रांता जब भी भारत पर आक्रमण करते थे तो सिंध प्रांत ही अरब आक्रांताओं का दिलेरी के साथ सामना करता था एवं उन्हें हराकर वापिस अरब लौटने को मजबूर कर देता था। उस समय दरअसल पश्चिम में सिंध प्रांत ही भारत का प्रवेश द्वार हुआ करता था। प्राचीन काल में अखंड भारत का सिंध प्रांत बहुत विकसित प्रदेश की अवस्था हासिल किए हुए था। सिंध प्रांत से अन्य देशों को जमीन और समुद्रीय मार्ग से उत्पादों का निर्यात किया जाता था। सिंध प्रांत प्राचीन काल से ही एक सफल एवं महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र के रूप में जाना जाता रहा है। सिंध प्रांत का व्यापारिक महत्व इतिहास में किसी से छुपा नहीं है। वीर सावरकर जी ने अपने एक उदबोधन में कहा था कि एक खंडकाल में सिंध पर वैदिक धर्माभिमानी, ब्राह्मण राजकुल के प्रजा वत्सल राजा दाहिर सेन राज्य करते थे, अर्थात् सिंध का तत्कालीन समाज व्यापारी होने के साथ साथ वैदिक धर्मावलंबी भी था। सिंध की पावन भूमि वैदिक संस्कृति एवं प्राचीन सभ्यता का केंद्र रही है एवं सिंध की पावन धरा पर कई ऋषि, मुनियों एवं संत महात्माओं ने जन्म लिया है। सिंधी समुदाय को भगवान राम के वंशज के रूप में भी माना जाता है। महाभारत काल में जिस राजा जयद्रथ का उल्लेख है वो सिंधी समुदाय का ही था।



 

भारत पर पहला और प्रमुख अरब आक्रमण 711 ईसवी में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में हुआ था। मोहम्मद बिन कासिम इस्लाम के प्रारंभिक काल में खिलाफत का एक अरब सिपहसालार था एवं उसने भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी क्षेत्र पर हमला बोला था। उसने सिंधु नदी के तट पर स्थित सिंध प्रांत और पंजाब के क्षेत्रों पर अधिपत्य करना चाहा था। उस समय भारत के इस महत्वपूर्ण सिंध प्रांत पर शूरवीर, पराक्रमी शासक, राजा दाहिर सेन का शासन था। राजा दाहिर सेन सिंध प्रांत के सिंधी ब्राह्मण सेन राजवंश के अंतिम हिंदू राजा थे। आपका जन्म 663 ईसवी में सिंध प्रांत में हुआ था। राजा दाहिर सेन अपनी सनातन हिंदू धर्म संस्कृति एवं भारत देश से अत्यधिक प्रेम करते थे। आप सिन्ध के अंतिम हिंदू शासक माने जाते हैं और आपने ही सिंध राज्य की सीमाओं का  पश्चिम में मकरान तक, दक्षिण में अरब सागर व गुजरात तक, पूर्व में मालवा और राजपूताने तक एवं उत्तर में मुल्तान से दक्षिणी पंजाब तक विस्तार किया था। श्री दाहिरसेन जी जिन्होंने युद्धभूमि में लड़ते हुए न केवल अपनी प्राणाहुति दी बल्कि उनके शहीद होने के बाद उनकी पत्नी, बहन और दोनों पुत्रियों ने भी अपना बलिदान देकर भारत में एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया था। चूंकि पूरा परिवार ही भारत माता की रक्षा करते हुए शहीद हुआ था अतः उनकी मृत्यु के सदियों पश्चात भी उनके शौर्य और पराक्रम की वीर गाथा लोग आज तक भी गाते हैं।

अखंड भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए अन्य नेताओं के साथ परम पूज्य डॉ. हेडगेवार जी भी अति सक्रिय रहे थे।  डॉ. हेडगेवार ने तो इस सम्बंध में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में वर्ष 1920 में नागपुर में आयोजित किए जा रहे अधिवेशन की प्रस्ताव समिति के सामने पारित किए जाने हेतु एक प्रस्ताव का सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त कराना होना चाहिए। भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करने से आश्य यहां अखंड भारत बनाने से ही है। अर्थात, भारत की राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से ही अखंड भारत बनाए जाने के प्रयास किए जाते रहे हैं। परंतु, वर्ष 1947 में भारत के राजनैतिक विभाजन के समय दुर्भाग्य से अखंड भारत का पश्चिमी किला सिंध प्रांत हमसे बिछड़ गया। हिंदू सिंधियों को मजबूरन सिंध प्रांत में अपने रचे बसे घरों को छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी के तौर पर मां भारती के आंगन में अन्य प्रदेशों में आना पड़ा था। उस समय की भयंकर त्रासदी को झेलने वाली पीढ़ी तो अब हमारे बीच नहीं रही है। परंतु, हमारे बुजुर्ग उस समय की परिस्थितियों का वर्णन जिस प्रकार करते रहे हैं वह हम सभी के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है। अब सिंध केवल हमारे राष्ट्र्गान में ही हमारे साथ रह गया है, वरना एक तरह से पूरा सिंधी साहित्य, सिंधी इतिहास, सिंधी तहजीब आदि सब कुछ छोड़कर हिंदू सिंधी भारत में आ गए। इन गुजरे 75 वर्षों में हमने कभी गम्भीरता पूर्वक एहसास ही नहीं किया कि सिंध प्रांत, जो कि अखंड भारत में हिंदू धर्म का आखिरी छोर माना जाता था एवं जहां वर्ष 1940 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देश भर के मुकाबले सबसे अधिक प्रचारक थे, को हमने खो दिया है। पंजाब एवं बंगाल प्रांतों का तो बंटवारा कर दिया गया था परंतु सिंध प्रांत तो पूरा का पूरा ही चला गया था जिसके चलते 12 लाख से अधिक सिंधी हिंदू शरणार्थियों को देश के विभिन्न भागों में बिखर जाना पड़ा था। सिंधी हिंदू उस समय पर ऐसे माहौल में भी अपने घरों की चाबियां अपने पड़ौसियों को इस उम्मीद में सौंप कर आए थे कि हम शीघ्र ही वापिस आएंगे और इसी कारण से अपना लगभग पूरा सामान ही वहीं पर छोड़कर आए थे क्योंकि उस समय तो उन्हें किसी तरह केवल अपनी जान बचानी थी। परंतु, दुर्भाग्य कि उन सिंधी भाईयों के घर इनकी राह आज भी देख रहे हैं।


बिहार के श्री हेमंत सिंह अपनी एक किताब 'आओ हिंद में सिंध बनाएं’ में कहते हैं कि जब भारत के राष्ट्रगान में सिंध है तो भारत की जमीन पर भी तो सिंध होना चाहिए। परंतु, भारतीय इतिहास में सिंध शायद किसी मेले में उंगली से छूट कर गुमा हुआ बच्चा जैसा है, जिसके मिलने की आस आज भी हर हिंदू सिंधी अपने मन में कर रहा है।  सिंध प्रांत में हिंदू सिंधियों ने तेजी से तरक्की की थी, क्योंकि सिंध का लगभग पूरा व्यापार ही हिंदू सिंधियों द्वारा किया जा रहा था। वर्ष 1947 आते आते अल्पसंख्यक हिंदुओं के पास सिंध की 40 प्रतिशत से अधिक जमीन जमा हो गई थी।  हिंदू सिंधियों को यह भी स्पष्ट तौर पर समझ में आ रहा है कि बंटवारे में उन्होंने जमीन के अलावा अपनी भाषा, साहित्य, कला, नृत्य, गीत-संगीत, तहजीब, पहनावा, खान-पान आदि कई प्रिय वस्तुएं भी खोई हैं। 5000 वर्षों से अधिक की संस्कृति के हिंदू सिंधी वारिस आज अपने आप को पूर्ण रूप से लूटा हुआ महसूस कर रहे हैं।


सिंध प्रांत के भारत से बिछड़ने के चलते  हिंदू सिंधियों के सिंध प्रांत छोड़ने के पश्चात सिंध प्रांत के शेष नागरिकों के हालात विभाजन के बाद बद से बदतर ही होते चले गए हैं। विकास की राह में सिंध लगातार पिछड़ता चला गया है। सिंध प्रांत में शेष बचे हिंदू सिंधियों पर अत्याचार आज एक सामान्य सी घटना मानी जाती है। हिंदू सिंधी परिवारों की बच्चियों को अगवा करना, उनका जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करना एवं उनका बुजुर्गों के साथ निकाह कर देना जैसी मानसिक त्रासदियों से हिंदू सिंधी समाज आज वहां गुजर रहा है। इन नारकीय परिस्थितियों के बीच सिंध प्रांत में निवास कर रहे एक बहुत बड़े वर्ग की तो अब सोच बन गई है कि यदि सिंध प्रांत को तरक्की की राह पर ले जाना है एवं यदि अल्पसंख्यकों (हिंदू सिंधियों) पर अत्याचार रोकना है तो सिंध प्रांत को पाकिस्तान से अलग करना ही समस्त समस्याओं का हल है। 


इसी संदर्भ में अमेरिका सहित विश्व भर में रह रहे कई सिंधियों द्वारा अब यह मिलाजुला प्रयास किया जा रहा है कि सिंध को पाकिस्तान से अलग कर दिया जाय इसके लिए सिंध प्रदेश में ही कई प्रदर्शन भी किए जा रहे हैं जिनमें सिंध प्रांत के नागरिकों का भरपूर समर्थन मिल रहा है। हालांकि सिंध प्रांत में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे अन्याय को देखते हुए छिटपुट प्रदर्शन तो लंबे समय से लगातार हो ही रहे हैं। परंतु, अब तो इन प्रदर्शनों को वर्ल्ड सिंधी कांग्रेस, सिंधुदेश लिबरेशन आर्मी, जय सिंधु स्टूडेंट, सिंध नैशनल मूवमेंट पार्टी और सिंध के कई राष्ट्रवादी संगठनों का भी भरपूर समर्थन मिल रहा है। अब तो यह वर्ग अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन एवं भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से भी मांग कर रहा है है कि सिंध प्रांत,  बलूचिस्तान तथा खैबर पख्तूनख्वा प्रांतों को पाकिस्तान से अलग कर दिया जाय। कई नागरिक तो अब सिंध प्रांत,  बलूचिस्तान तथा खैबर पख्तूनख्वा प्रांतों को भारत में मिलाने के लिए भी अपने आप को मानसिक तौर पर तैयार कर रहे है। दरअसल सिंधी समुदाय के लोग स्वयं को सिंधु घाटी की सभ्यता के वंशज मानते रहे हैं। सिंधी राष्ट्रवादियों का कहना है कि उनके प्रांत पर अंग्रेजों ने जबरन कब्जा किया हुआ था और वर्ष 1947 में सिंध के नागरिकों की इच्छा के विरुद्ध अवैध तरीके से सिंध प्रांत को पाकिस्तान में मिला दिया गया था।


इस वर्ष चैत्र माह के नवसंवत्सर के दिन हिंदू सिंधी समुदाय द्वारा चेटीचंड मनाया जा रहा है जो कि अब एक धार्मिक उत्सव ही नहीं बल्कि सिंधु संस्कृति और अस्मिता का प्रतीक पर्व भी है, के दिन हिंदू सिंधियों की कुर्बानी को जानने समझने की कोशिश पूरे भारत में की जाना चाहिए एवं किस प्रकार सिंध पुनः भारत का ही एक भाग बने इस विषय पर गम्भीरता के साथ विचार होना चाहिए। हिंदू सिंधी समुदाय को तो सिंध को भारत के साथ जोड़ने की आज के शुभ दिवस पर यह प्रतिज्ञा ही लेनी चाहिए।