अधिक ऋण के बोझ तले वैश्विक अर्थव्यवस्था कहीं चरमरा तो नहीं जाएगी
विश्व के समस्त नागरिकों एवं विभिन्न संस्थानों पर लगभग 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण है। कुल ऋण की उक्त राशि में विभिन्न देशों की सरकारों के ऋण एवं नागरिकों के व्यक्तिगत ऋण भी शामिल है। कई देशों को मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण पाने में बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही, विकास करने का दबाव विभिन्न देशों की सरकारों पर है अतः सरकारों के साथ साथ व्यक्ति भी बहुत अधिक मात्रा में ऋण ले रहे हैं। परंतु, कितना ऋण प्रत्येक व्यक्ति अथवा सरकार पर होना चाहिए, इस विषय पर भी अब गम्भीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
आज विश्व की कुल जनसंख्या 810 करोड़ है और विश्व पर कुल ऋण की राशि 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है इस प्रकार औसत रूप से विश्व के प्रत्येक नागरिक पर 39,000 अमेरिकी डॉलर का ऋण बक़ाया है। 320 लाख करोड़ रुपए के ऋण की राशि में विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा लिया गया ऋण, व्यापार एवं उद्योग द्वारा लिया गया ऋण एवं व्यक्तियों द्वारा लिया गया ऋण शामिल है। पूरे विश्व में परिवारों/व्यक्तियों द्वारा 59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है। व्यापार एवं उद्योग द्वारा 164 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है। साथ ही, सरकारों द्वारा 97 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है, ऋण की इस राशि में एक तिहाई हिस्सा विकासशील देशों की सरकारों द्वारा लिया गया ऋण भी शामिल है। सरकारों द्वारा लिए गए ऋण की राशि पर प्रतिवर्ष 84,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ब्याज का भुगतान किया जाता है। विश्व में प्रत्येक 3 देशों में से 1 देश द्वारा कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च की गई राशि से अधिक राशि ऋण पर ब्याज के रूप में खर्च की जाती है। आकार में छोटी अर्थव्यवस्थाओं के लिए अधिक ऋण लेना सदैव ही बहुत जोखिमभरा निर्णय रहता आया है।
पूरे विश्व में लिए गए भारी भरकम राशि के ऋण के चलते अमीर वर्ग अधिक अमीर होता चला जा रहा है एवं गरीब वर्ग और अधिक गरीब होता चला जा रहा है, क्योंकि अमीर वर्ग ऋण का उपयोग अपने लाभ का लिए कर पा रहा है एवं इस ऋण राशि से अपनी सम्पत्ति में वृद्धि करने में सफल हो रहा है। जबकि, गरीब वर्ग इस ऋण की राशि का उपयोग अपनी देनंदिनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है और ऋण के जाल में फंसता चला जाता है। इसके साथ ही, हालांकि विश्व में दो विश्व युद्ध हो चुके हैं, वर्तमान में भी रूस यूक्रेन युद्ध एवं इजराईल हमास युद्ध चल ही रहा है। परंतु, फिर भी इस सबका असर अमीर वर्ग पर नहीं के बराबर हो रहा है। हां, गरीब वर्ग जरूर और अधिक गरीब होता जा रहा हैं क्योंकि विश्व के कई देशों में, ब्याज दरों में लगातार की जा रही बढ़ौतरी के बाद भी, मुद्रा स्फीति नियंत्रण में नहीं आ पा रही है। मुद्रा स्फीति का सबसे अधिक बुरा प्रभाव गरीब वर्ग पर ही पड़ता है। अमीर वर्ग (जिनकी सम्पत्ति 2 करोड़ 28 लाख अमेरिकी डॉलर से अधिक है), इनकी संख्या वर्ष 2023 में 5.1 प्रतिशत से बढ़ गई है और इनकी कुल सम्पत्ति 86.8 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर हो गई है और यह भी 5 प्रतिशत की दर से बढ़ गई है। वर्ष 2020 के बाद से विश्व के 5 सबसे अधिक अमीर व्यक्तियों की संपत्ति दुगुनी हो गई है। साथ ही, वर्ष 2020 के बाद से विश्व के बिलिनायर की सम्पत्ति 3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़ गई है। इन कारणों के चलते अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। जिस रफ्तार से विश्व में गरीबी कम हो रही है, इससे ध्यान में आता है कि इस धरा से गरीबी को हटाने में अभी 229 वर्ष का समय लगेगा। जैसे जैसे विश्व में विकास की दर तेज हो रही है अमीर व्यक्ति अधिक अमीर होते जा रहे हैं एवं गरीब व्यक्ति अधिक गरीब होते जा रहे हैं। आज से पहिले विश्व में कभी भी इतने अधिक अमीर नागरिक नहीं रहे हैं।
वैश्विक स्तर पर उक्त वर्णित ऋण सम्बंधी भयावह आंकड़ों के बीच अन्य विकसित देशों की तुलना में भारत की स्थिति नियंत्रण में नजर आती है। वैसे भी, ऋण का उपयोग यदि उत्पादक कार्यों के लिए किया जाता है एवं इससे यदि धन अर्जित किया जाता है तो बैकों से ऋण लेना कोई बुरी बात नहीं है। बल्कि, इससे तो व्यापार को विस्तार देने में आसानी होती है और पूंजी की कमी महसूस नहीं होती है। साथ ही, भारतीय नागरिक तो वैसे भी सनातन संस्कृति के अनुपालन को सुनिश्चित करते हुए अपने ऋण की किश्तों का भुगतान समय पर करते नजर आते हैं इससे भारतीय बैकों की अनुत्पादक आस्तियों में कमी दृष्टिगोचर हो रही है।
भारत के बैकों की ऋण राशि में हो रही अतुलनीय वृद्धि के बावजूद, भारत में ऋण:सकल घरेलू उत्पाद अनुपात अन्य विकसित देशों की तुलना में अभी भी बहुत कम है। हालांकि यह वर्ष 2020 में 88.53 प्रतिशत तक पहुंच गया था, क्योंकि पूरे विश्व में ही कोरोना महामारी के चलते आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी। परंतु, इसके बाद के वर्षों में भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में लगातार सुधार दृष्टिगोचर है और यह वर्ष 2021 में 83.75 प्रतिशत एवं वर्ष 2022 में 81.02 प्रतिशत के स्तर पर नीचे आ गया है। साथ ही, भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के वर्ष 2028 में 80.5 प्रतिशत के निचले स्तर पर आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। यदि अन्य देशों के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात की तुलना भारत के ऋण सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के साथ की जाय तो इसमें भारत की स्थिति बहुत सुदृढ़ दिखाई दे रही है। पूरे विश्व में सबसे अधिक ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात जापान में है और यह 255 प्रतिशत के स्तर को पार कर गया है। इसी प्रकार यह अनुपात सिंगापुर में 168 प्रतिशत है, इटली में 144 प्रतिशत, अमेरिका में 123 प्रतिशत, फ्रान्स में 110 प्रतिशत, कनाडा में 106 प्रतिशत, ब्रिटेन में 104 प्रतिशत एवं चीन में भी भारी भरकम 250 प्रतिशत के स्तर के आसपास बताया जा रहा है। अर्थात, विश्व के लगभग समस्त विकसित देशों में ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात 100 प्रतिशत के ऊपर ही है। भारत में इस अनुपात का 81 प्रतिशत के आसपास रहना संतोष का विषय माना जा सकता है।
हाल ही के समय में भारत में विनिर्माण इकाईयों की उत्पादन क्षमता का उपयोग बहुत तेजी से बढ़ा है, वित्तीय वर्ष 2022-23 के चौथी तिमाही में विनिर्माण इकाईयों द्वारा अपनी उत्पादन क्षमता का 76.3 प्रतिशत उपयोग किया जा रहा था, जिसके कारण उद्योग जगत को ऋण की अधिक आवश्यकता महसूस हो रही है। बढ़े हुए ऋण की आवश्यकता की पूर्ति भारतीय बैंकें आसानी से करने में सफल रही हैं। यह तथ्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि विकसित देशों में भी प्रायः यह देखा गया है कि बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण में वृद्धि के साथ उस देश के सकल घरेलू उत्पाद में भी तेज गति से वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। भारत में भी अब यह तथ्य परिलक्षित होता दिखाई दे रहा है। भारत में आर्थिक गतिविधियों में आ रही तेजी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में भी ऋण की मांग लगातार बढ़ रही है। फिर भी, भारत में कोरपोरेट को प्रदत ऋण का सकल घरेलू उत्पाद से प्रतिशत वर्ष 2015 के 65 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2023 में 50 प्रतिशत हो गया है। इसका आशय यह है कि इस दौरान कोरपोरेट ने अपने ऋण का भुगतान किया है एवं उन्होंने सम्भवत: अपनी लाभप्रदता में वृद्धि दर्ज करते हुए अपने लाभ का पूंजी के रूप में पुनर्निवेश किया है।
दूसरे, भारत में विभिन्न बैंकों द्वारा प्रदत्त लम्बी अवधि के ऋण सामान्यतः आस्तियां उत्पन्न करने में सफल रहे हैं, जैसे गृह निर्माण हेतु ऋण अथवा वाहन हेतु ऋण, आदि। इस प्रकार के ऋणों के भविष्य में डूबने की सम्भावना बहुत कम रहती है। बैकों द्वारा खुदरा क्षेत्र में प्रदत्त ऋणों में से 10 प्रतिशत से भी कम ऋण ही प्रतिभूति रहित दिए गए हैं जैसे सरकारी कर्मचारियों को पर्सनल (व्यक्तिगत) ऋण, आदि। पर्सनल ऋण प्रतिभूति रहित जरूर दिए गए हैं परंतु चूंकि यह सरकारी कर्मचारियों सहित नौकरी पेशा नागरिकों को दिए गए हैं, जिनकी मासिक किश्तें समय पर अदा की जाती हैं, अतः इनके भी डूबने की सम्भावना बहुत ही कम रहती है। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि भारत में अब बैकों द्वारा ऋण सम्बंधी व्यवसाय बहुत सुरक्षित तरीके से किया जा रहा है। इसी कारण से हाल ही के समय में यह पाया गया है कि भारतीय बैंकों की अनुत्पादक आस्तियों की वृद्धि पर अंकुश लगा है। यह भी संतोष का विषय है कि हाल ही के समय में भारतीय बैकों से प्रथम बार ऋण लेने वाले नागरिकों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गई है। इसका आशय यह है कि भारतीय नागरिक जो अक्सर बैकों से ऋण लेने से बचते रहे हैं वे अब बैकों से ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित हो रहे हैं क्योंकि इस बीच बैंकों द्वारा प्रदान किए जा रहे ऋण सम्बंधी शर्तों को आसान बनाया गया है।
कुल मिलाकर भारत के संदर्भ में यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि भारतीय नागरिकों में सनातन संस्कृति के संस्कार होने के कारण बैकों से ऋण के रूप में उधार ली गई राशि का समय पर भुगतान किया जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह माना जाता है, जिसके कारण भारतीय बैंकों के अनुत्पादक आस्तियों की राशि अन्य देशों की बैंकों की तुलना में कम हो रही है। अतः वैश्विक स्तर पर गम्भीर होती ऋण सम्बंधी समस्या का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर सीधे सीधे पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है।
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