देश में पनप रहे मरुस्थलीकरण को रोकना ही होगा 

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि प्रतिवर्ष विश्व में 1.20 करोड़ हेक्टेयर कृषि उपजाऊ भूमि ग़ैर-उपजाऊ भूमि में परिवर्तित हो जाती है।  दुनियाँ में 400 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन डिग्रेड हो चुकी है। एशिया एवं अफ़्रीका की लगभग 40 प्रतिशत आबादी ऐसे क्षेत्रों में रह रही है, जहाँ मरुस्थलीकरण का ख़तरा लगातार बना हुआ है। इनमें से अधिकतर लोग अपनी आजीविका के लिए कृषि एवं पशु-पालन जैसे व्यवसाय पर निर्भर हैं।  भारत की ज़मीन का एक तिहाई हिस्सा, अर्थात 9.7 करोड़ से 10 करोड़ हेक्टेयर के बीच ज़मीन डिग्रेडेड है। ज़मीन के डिग्रेड होने से  ज़मीन की जैविक एवं आर्थिक उत्पादकता कम होने लगती है। दूसरा, पैदावार की लाभप्रदता एवं किसान की आय पर भी असर होता है। तीसरा, छोटे एवं सीमांत किसान जिनके पास बहुत ही कम ज़मीन है उनकी तो रोज़ी रोटी पर ही संकट आ जाता है। रोज़गार के अवसर कम होते जाते हैं एवं लोग गावों से शहरों की ओर पलायन करने लगते है। पूरी पर्यावरण प्रणाली ही बदलने लगती है। ज़मीन के डेग्रडेशन की वजह से देश को  4600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक़सान प्रतिवर्ष हो रहा है। यदि समय रहते इस गम्भीर समस्या के समाधान की ओर नहीं सोचा गया तो वह दिन दूर नहीं जब विश्व में ज़मीन का एक बढ़ा हिस्सा मरुस्थल में परिवर्तित हो जाएगा। 

उक्त विषय की गम्भीरता को समझते हुए भारत की मेज़बानी में इस वर्ष 2 सितम्बर से 13 सितम्बर 2019 के बीच दिल्ली के पास ग्रेटर नॉएडा में यूनाइटेड नेशन्स कन्वेन्शन टू कॉम्बैट डीजरटीफिकेशन (COP 14) का 14वाँ सम्मेलन आयोजित किया गया। विश्व में COP के 197 देश, सदस्य हैं। दुनिया भर के 9000 से अधिक विशेषज्ञों एवं सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया। यह सम्मेलन, विश्व के एक बहुत बड़े भाग के मरुस्थलीकरण में परिवर्तित होने के कारणों एवं इसे रोकने के उपायों पर चर्चा करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया था। इस  सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भारत के प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी ने बताया कि भारत वर्ष 2030 तक 2.10 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लक्ष्य को बढ़ाकर 2.60 करोड़ हेक्टेयर करेगा। प्रधान मंत्री ने आगे बताया कि भारत ने मरुस्थलीकरण को बढ़ने से रोकने के लिए वर्ष 2015 एवं 2017 के बीच देश में पेड़ एवं जंगल के दायरे में 8 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी की है। इतना ही नहीं प्रधान मंत्री ने आगे कहा कि हमें बंजर भूमि के साथ-साथ पानी की समस्या पर भी ध्यान देना होगा। साथ ही, भारत सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने की और भी अपने क़दम बढ़ा चुका है और दुनिया को भी इस और ध्यान देना चाहिए।

देश में कृषि एवं ग़ैर-कृषि उपयोग के लिए  ज़मीन की माँग बढ़ती जा रही है लेकिन यदि देश की बंजर हो चुकी भूमि को पुनः उपजाऊ नहीं बनाया गया तो उक्त माँग को पूरा करना नामुमकिन सा ही है। उपजाऊ भूमि के बंजर भूमि में परिवर्तित होने के कई कारण हैं, जैसे, मिट्टी का कटाव - तेज़ हवा के चलते, धूल की वजह से, मिट्टी उड़ जाती है एवं इलाक़ा रेतीला बनता जाता है। तेज़ बारिश के चलते भी मिट्टी, पानी के साथ बह जाती है एवं इलाके की भूमि कम उपजाऊ हो जाती है। दूसरे, रासायनिक उर्वरकों एवं कीट नाशक दवाओं के अत्यधिक उपयोग से भी मिट्टी क्षारीय हो जाती है। तीसरे, नहरों में जमा पानी से सिंचाई की जाती है, पानी सही तरीक़े से निकल नहीं पाता है, पानी के जमाव के चलते, ज़मीन ख़राब होने लगती है। अन्य भी कई कारण हैं, यथा, वनों का कटाव एवं जल स्त्रोतों को नष्ट करना, शहरीकरण के चलते कंकरीट के जंगल खड़े करना, औद्योगिकीकरण के चलते वातावरण में गरमी का बढ़ना, हमारे देश में पिछले 50-60 वर्षों में नए पेड़ों का रोपण बहुत ही कम मात्रा में होना एवं पानी का अंधाधुँध उपयोग होना, (देश में, कृषि के क्षेत्र में खुली नहर नीति के अन्तर्गत 80 प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि सिंचाई के लिए हो रहा है एवं इससे पानी का बहुत ज़्यादा अपव्यय हो रहा है)। पोशक तत्वों का असंतुलित उपयोग होना, जैसे - यूरिया खाद (नाइट्रोजन) पर सरकार की और से बहुत ज़्यादा सब्सिडी उपलब्ध कराया जाना एवं किसान द्वारा यूरिया का अधिक मात्रा में उपयोग करना। फ़ोस्फोरेस एवं पोट्टास का उपयोग कम करना अतः खाद का असंतुलित प्रयोग होना। साथ ही, सूक्ष्म पोषक तत्वों, जैसे ज़िंक, मैगज़ीन का भी बहुत अधिक उपयोग होना। हम लोग मिट्टी को खनिज में परिवर्तित करते जा रहे हैं। इससे पैदावार कम होती जा रही है एवं ज़मीन डिग्रेड होती जा रही है।  इन सभी कारणों की वजह से हम तेज़ी से मरुस्थलीकरण की और बढ़ते जा रहे हैं।

अब सवाल यह है की उक्त भयावह परिस्थिति को और गम्भीर होने से रोका कैसे जाय। इस सम्बंध में कई कृषि वैज्ञानिकों ने सुझाव दिए हैं। जैसे, केंद्र सरकार की एक बहुत ही अच्छी पहल पर अभी तक 27 करोड़ मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड जारी किए जा चुके हैं। इसमें मिट्टी की जाँच में पता लगाया जाता है कि किस पोशक तत्व की ज़रूरत है एवं उसी हिसाब से खाद का उपयोग करें। अब ये किसानों के ऊपर है कि वे इस जानकारी का उपयोग किस प्रकार करते हैं। पोषक तत्वों का संतुलित उपयोग करने से न केवल ज़मीन की उत्पादकता बढ़ती है ब्लिंक उर्वरकों का उपयोग भी कम होता है। खेती पर ख़र्च कम होता है, इस प्रकार किसान की आय में वृद्धि होती है।

माननीय प्रधान मंत्री ने नारा दिया है “ प्रति बूँद अधिक पैदावार”। इसके अंतर्गत सूक्ष्म सिंचाईं के तरीक़ों का उपयोग करना होगा। फ़व्वारा सिंचाई (Sprinkler Irrigation), बूँद-बूँद सिंचाई (Drip Irrigation) के माध्यम से इज़राईल जैसे सूखाग्रस्त देश ने कृषि पैदावार में अपने आप को आत्मनिर्भर बना लिया है। 

कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि हर फ़सल अलग तरह के पोशक तत्वों को ग्रहण करती है, अतः एक ही तरह की फ़सल से बहु-फ़सल एवं मिश्रित-फ़सल की तरफ़ जाएँ जिसके अन्तर्गत पेड़ों और बड़ी  झाड़ियों को भी अपने खेत का हिस्सा बनाएँ ताकि खोई हुई उर्वरा शक्ति को हासिल किया जा सके। प्राकृतिक रूप वाले जल-विभाजन एवं जंगल स्थापित करें।        

कृषि वैज्ञानिकों का मत है कि दो खेतों के बीच में ज़मीन खुली न छोड़ें। जितनी ज़मीन खुली छोड़ेंगे उतना अधिक पोषक तत्वों का नुक़सान होगा। अतः पैदावार लेते रहें। ज़मीन का उपयोग लगातार करते रहें। ख़ाली ज़मीन पर कुछ अन्य पेड़ लगाएँ। मिश्रित खेती करें। हर दो महीने बाद कोई न कोई फ़सल उगाते रहें। इस प्रकार, साल भर में चार-चार फ़सल ली जा सकती है। इसके लिए मिट्टी को उपजाऊ बनाना होगा। वाटर हार्वेस्टिंग, माइक्रो सिंचाई से मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाया जा सकता है। ऐसे पौधे भी उपलब्ध हैं जिन्हें लगाने से मिट्टी के उपजाऊपन में सुधार आता है। कुछ जैविक पदार्थ भी मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाते हैं।

खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की गावों में ही अधिक से अधिक स्थापना की जानी चाहिए जिससे कि  पैदावार का सही एवं समय पर उपयोग किया जा सके। इससे टमाटर एवं आलू आदि तथा फलों की खेती को बढ़ावा मिलेगा।