भारतीय किसानों एवं उद्योगों के हित में, आरसीईपी को भारत की ना
भारत के प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी ने बैंकाक में दिनांक 4 नवम्बर 2019 को आयोजित क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) शिखर सम्मेलन में अंततः यह घोषणा की कि भारत अभी की परिस्थितियों को देखते हुए क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते पर अपने हस्ताक्षर नहीं करेगा। भारत ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के पहले कुछ मुद्दे रखे थे, जिन्हें उक्त मीटिंग में सुलझाया नहीं जा सका, अतः भारत ने समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। हालाँकि ये मुद्दे नए नहीं थे और पूर्व में भी कई बार भारत इन मुद्दों को उठाता रहा है, परंतु इनका संतोषजनक हल अभी तक नहीं निकाला जा सका है।
RCEP के, भारत सहित, कुल 16 देश सदस्य हैं। विश्व के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 30 प्रतिशत हिस्सा RCEP के सदस्य देशों से आता है एवं विश्व की लगभग आधी आबादी इन सदस्य देशों में निवास करती है। अतः RCEP अपने आप में व्यापार की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण संगठन है। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता, इन समस्त सदस्य देशों के बीच, व्यापार को आसान बनाए जाने के उद्देश्य से किया जा रहा है। इस समझौते के लागू होने के बाद इन सदस्य देशों के बीच वस्तुओं के आयात एवं निर्यात पर करों की दरों में भारी कमी की जाएगी अथवा करों को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाएगा ताकि सदस्य देशों के बीच विदेशी व्यापार को बढ़ाया जा सके।
RCEP के 15 अन्य सदस्य देशों में से 12 देशों (जापान, कोरिया एवं 10 ASEAN देश) के साथ भारत का पहिले से ही मुक्त व्यापार समझौता हो चुका है और यह समझौता चालू है। बाक़ी 3 देशों (आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड एवं चीन) के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता नहीं हो पाया है। इन सभी 15 देशों के साथ भारत का विदेशी व्यापार घाटा 11500 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। जिसमें से 5400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का व्यापार घाटा अकेले चीन के साथ है, और यह व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है जो भारत के लिए एक चिंता का विषय बन गया है। RCEP में भारत के शामिल होने के साथ यह व्यापार घाटा कम होगा अथवा बढ़ेगा, इस बात पर गम्भीरता से विचार करना अति आवश्यक है। अभी यह भी साफ़ नहीं है कि RCEP में शामिल होने के बाद भारत के निर्यात बढ़ेंगे अथवा आयात बढ़ेंगे और किस प्रकार की सहूलियतें भारत को प्राप्त होंगी। चीन अपने देश में आयात सम्बंधी कई अवरोध खड़े करता है एवं कई प्रकार की सब्सिडी प्रदान करता है, जो पारदर्शी नहीं हैं। क्या इस तरह की समस्याओं को चीन द्वारा हल किया जाएगा, इसका उत्तर भी संतोषजनक रूप से नहीं दिया जा सका। चीन के साथ अन्य देशों की भी विदेशी व्यापार सम्बंधी समस्याएँ हैं।
चीन का RCEP के सदस्य देशों पर अत्यधिक ज़ोर है कि उक्त व्यापार समझौता शीघ्र ही सम्पन्न किया जाय। क्योंकि, अमेरिका के साथ चीन का व्यापार युद्ध चल रहा है। अतः वह नया बाज़ार तलाश रहा है, जहाँ उसके उत्पाद बिक सकें। जबकि भारत चाहता है कि उसका बाज़ार थोड़ा संरक्षित रहे क्योंकि भारत ने भी अभी तक कई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते लागू किए हैं और लगभग इन सभी देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। अतः भारत अपना हर क़दम फूँक फूँक कर रखना चाहता है। जैसे श्रीलंका के साथ भारत ने मुक्त व्यापार समझौता लागू किया तो उसके लागू होने के बाद रबर एवं मसाले, आदि उत्पादों के मामले में दिक्कतें आनी शुरू हुईं क्योंकि यह उत्पाद बहुत ही कम क़ीमतों पर श्रीलंका से भारत में आने लगे और भारत के किसानों के उत्पाद अप्रतिस्पर्धी हो गए। ASEAN देशों के साथ भी भारत ने मुक्त व्यापार समझौते किए परंतु चीन के उत्पाद इन ASEAN देशों के माध्यम से भारत में आने लगे। इससे हमारे कृषि एवं उद्योंग क्षेत्रों को बहुत ज़्यादा नुक़सान हुआ। न्यूजीलैंड को भी भारत का बाज़ार चाहिए क्योंकि वहाँ से दूध के 94 प्रतिशत उत्पाद दूसरे देशों को निर्यात किए जाते हैं। भारत में किसानों से दूध 31 रुपए प्रति लीटर ख़रीदा जाता है वहीं न्यूजीलैंड में 10 रुपए प्रति लीटर दूध ख़रीदा जाता है। इतना बड़ा अंतर है और अगर दूध का आयात न्यूजीलैंड से भारत में किया जाता है तो भारतीय किसान कहीं नहीं टिक पाएँगे। इन्ही समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत ने विशेष रूप से दो मुद्दे उक्त शिखर सम्मेलन में रखे कि टेर्रिफ सम्बंधी प्रतिबंध हेतु वर्ष 2014 को आधार वर्ष बनाए जाने के स्थान पर वर्ष 2019 को आधार वर्ष बनाया जाए। क्योंकि, अन्यथा की स्थिति में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों पर भारत में टेर्रिफ शून्य प्रतिशत हो जाएगा और चीन से इन उत्पादों की भारत में बाढ़ ही आ जाएगी। दूसरे, स्वतः संरक्षण की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। ऐसा नहीं हो कि बहुत सारे उत्पाद भारत में आने शुरू हो जाएँ और भारत के उद्योगों को किसी प्रकार का संरक्षण ही न रहे।
इंडो पेसिफ़िक क्षेत्र में भारत की स्थिति और अन्य देशों की स्थिति में बहुत बड़ा फ़र्क़ है। न्यूजीलैंड एवं आस्ट्रेलिया प्राथमिक उत्पादों का निर्यात करते हैं उनके लिए चीन का बाज़ार बहुत ज़रूरी है। उन्हें उक्त समझौते से बहुत लाभ होगा। जबकि भारत के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। भारत का पूर्व में ही RCEP सदस्य देशों के साथ बहुत बड़ा व्यापार घाटा है, यदि यह घाटा और भी बढ़ता है तो भारत के कृषि एवं उद्योग क्षेत्रों को और अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। अतः आज यदि भारत को लग रहा है कि उक्त समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद हम अपने हितों की रक्षा नहीं कर सकेंगे तो हस्ताक्षर न करने सम्बंधी फ़ैसला एकदम उचित फ़ैसला ही कहा जाना चाहिए। परंतु, आगे आने वाले समय में भारत को अपने कृषि एवं उद्योग क्षेत्रों का तकनीकी रूप से उन्नयन करना ही होगा। क्योंकि, लम्बे समय तक हम संरक्षित वातावरण में नहीं रह सकते। देश के कृषि एवं उद्योग क्षेत्रों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा को झेलने हेतु भी सक्षम बनाना होगा तभी देश मुक्त व्यापार समझौतों का लाभ उठा पाएगा।
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