नागरिकों को स्वावलम्बी बनाने के लिए अब स्वयंसेवी संगठन भी आ रहे हैं आगे  



अतिप्राचीन भारत के आर्थिक परिदृश्य में मुद्रा स्फीति, बेरोजगारी, नागरिकों में आय की असमानता एवं राज्य में वित्तीय असंतुलन जैसी समस्याओं का वर्णन लगभग नहीं के बराबर मिलता है। उस समय लोग बहुत ही सुखी, सम्पन्न एवं स्वावलम्बी थे तथा नागरिक सामान्यतः ग्रामीण इलाकों में आपस में मिल जुलकर रहते हुए प्रसन्नता पूर्वक अपना जीवन निर्वहन करते थे। प्रकृति से उतना ही लिया जाता था जितना आवश्यक होता था अर्थात उस समय नागरिक प्रकृति का दोहन करते थे, न कि शोषण जैसा कि आजकल होता दिखाई दे रहा है। 


विश्व के कई देशों में जब आर्थिक प्रगति ने रफ्तार पकड़ना शुरू किया और आज के कई विकसित देशों का रुझान पूंजीवाद की ओर बढ़ने लगा तो शुरुआती दौर में पूंजीवाद को साम्यवादी विकास मॉडल का उचित स्थानापन्न समझा गया परंतु शीघ्र ही इसकी कमियां भी उजागर होने लगी जैसे मुद्रा स्फीति, बेरोजगारी, नागरिकों के बीच आय की असमानता एवं राज्य में वित्तीय असंतुलन, आदि। आज तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि विकसित देशों के अर्थशास्त्री ही कहने लगे हैं कि विकास का पूंजीवादी मॉडल, जो कि पूर्णतः भौतिकवाद पर टिका हुआ है, आगे आने वाले बहुत लम्बे समय तक नहीं चलने वाला है। उनका यह भी कहना है कि आर्थिक विकास के लिए एक नए मॉडल की तलाश अभी से शुरू कर देनी चाहिए और इस हेतु वे भारत की ओर बहुत आशा भरी नजरों से देख रहे हैं।


पूंजीवादी मॉडल के अंतर्गत उत्पाद की पहिले मांग उत्पन्न की जाती है एवं बाद में धीरे धीरे उत्पादन बढ़ाया जाता है। उत्पाद विशेष की मांग उत्पन्न करने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया जाता है और विज्ञापन देखकर नागरिकों को ऐसा लगने लगता है कि इस उत्पाद का उपयोग यदि हमने नहीं किया तो हमारा जीवन ही जैसे बेकार है। इस प्रकार उस उत्पाद की वास्तविक आवश्यकता न होते हुए भी कई बार वह उसे खरीदता है और उस उत्पाद की मांग उत्पन्न किए जाने में अपना सहयोग देता है। उस उत्पाद विशेष की बाजार में मांग तो उत्पन्न हो जाती है परंतु उसकी उपलब्धता समय पर नहीं हो पाती है जिससे वह पदार्थ महंगा होने लगता है। इसके ठीक विपरीत प्राचीन भारत में नागरिक केवल अपनी वास्तविक आवश्यकता अनुसार ही उत्पादों की खरीद करते थे अतः उत्पादों की अनावश्यक मांग उत्पन्न ही नहीं होती थी। चूंकि उत्पादों का निर्माण सामान्यतः कुटीर एवं लघु उद्योगों द्वारा ग्रामीण इलाकों में ही किया जाता था अतः उनकी पर्याप्त उपलब्धता सदैव बनी रहती थी, इस प्रकार उत्पादों की कीमतों में अनावश्यक वृद्धि न होकर बल्कि कई बार उत्पादों की कीमतें कम होती रहती थीं। इसलिए प्राचीन काल में महंगाई अथवा मुद्रा स्फीति की समस्या उत्पन्न ही नहीं होती थी। 


इसी प्रकार ग्रामीण इलाकों में चूंकि कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना पर्याप्त मात्रा में होती थी और ग्रामीण इलाकों में निर्मित वस्तुओं को यथासम्भव इन्हीं इलाकों में लगने वाले साप्ताहिक हाट, बाजार आदि के माध्यम से बेच दिया जाता था, इसलिए स्थानीय नागरिकों के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर भी इन्हीं इलाकों में उपलब्ध हो जाते थे इससे ग्रामीण इलाकों से पलायन की समस्या उत्पन्न ही नहीं होती थी तथा बेरोजगारी की समस्या भी नहीं रहती थी।


भारत में तो आज भी 60 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास करती है और अपने जीविकोपार्जन के लिए एक बहुत बड़ी हद्द तक कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 16 से 18 प्रतिशत के बीच ही रहता है। इस कारण से ग्रामीण इलाकों में शहरों की तुलना में गरीबी एवं बेरोजगारी बहुत अधिक मात्रा में  दिखाई देती है और ग्रामीण इलाकों में निवास करने वाले लोग शहरों की ओर पलायन को मजबूर हैं। इसलिए आज ग्रामीण इलाकों में रोजगार के नए अवसर निर्मित कर इन इलाकों में निवास कर रहे लोगों को स्वावलंबी बनाए जाने की अधिक आवश्यकता है।


हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन ने देश के कई इलाकों में विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, औद्योगिक एवं स्वयंसेवी संगठनों को साथ लेकर देश में बेरोजगारी कम करने एवं देश के नागरिकों को स्वावलंबी बनाए जाने के पवित्र उद्देश्य से स्वावलम्बन कार्यक्रम की शुरुआत की है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत बेरोजगार युवाओं को अपना व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए प्रेरणा प्रदान करने के साथ ही इस सम्बंध में आवश्यक जानकारी भी उपलब्ध कराई जाती है। कुछ राज्यों के स्थानीय इलाकों में तो एक वृहद सर्वे के माध्यम से यह पता लगाने का प्रयास भी किया जा रहा है कि इन स्थानीय इलाकों में किस प्रकार के रोजगार की आवश्यकता है एवं किस प्रकार के कुटीर एवं लघु उद्योग इन इलाकों में प्रारम्भ किये जा सकते हैं ताकि इन इलाकों में इन बेरोजगार युवाओं द्वारा इन उद्योगों को प्रारम्भ कर अन्य युवाओं के लिए भी रोजगार के नए अवसर निर्मित किए जा सकें। साथ ही, स्थानीय उद्योगों से भी आग्रह किया जा रहा है कि वे स्थानीय लोगों को ही रोजगार प्रदान करने के प्रयास करें ताकि इन इलाकों से युवाओं के पलायन को रोका जा सके। स्वावलम्बन योजना के अंतर्गत स्थानीय स्तर पर ही युवाओं में कौशल विकसित करने हेतु भी प्रयास किए जाएंगे।     


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन पूर्व में भी लगातार यह प्रयास करता रहा है कि देश को विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने हेतु देश में ही निर्मित वस्तुओं के उपभोग को बढ़ावा मिले एवं स्वदेशी को प्रोत्साहन मिले। साथ ही, देश में आर्थिक विकेंद्रीयकरण होना चाहिए ताकि ग्रामीण स्तर पर कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना को बल मिले एवं स्थानीय स्तर पर उत्पादों का न केवल निर्माण हो बल्कि इन उत्पादों की खपत भी स्थानीय स्तर पर होती रहे। उद्यमिता को लेकर जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से भी प्रयास किए जा रहे हैं ताकि देश का युवा नौकरी करने वाला नहीं बल्कि रोजगार उत्पन्न करने वाला बने। 


हाल ही के समय में भारत के साथ साथ पूरे विश्व में ही भारतीय योग के प्रति रुझान बढ़ा है अतः योग के प्रशिक्षित शिक्षकों की अधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है। भारत के युवा, योग के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने आपको प्रशिक्षित शिक्षकों की श्रेणी में लाकर अपने लिए रोजगार के नए अवसर उत्पन्न कर सकते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के सेवा क्षेत्र में कई ऐसे क्षेत्र हैं जिनमे रोजगार के पर्याप्त अवसर तो उपलब्ध हैं परंतु भारतीय युवा इन क्षेत्रों को कम महत्वपूर्ण मानकर इन क्षेत्रों में रोजगार प्राप्त करना ही नहीं चाहते हैं। इन क्षेत्रों में शामिल हैं - ट्रक चालक एवं क्लीनर, ऑटो रिपेयरिंग, बाल काटने के कार्य, आदि, आदि। ग्रामीण इलाकों में जैविक खेती को केंद्र सरकार द्वारा लगातार बढ़ावा देने के प्रयास किए जा रहे हैं, अतः भारतीय युवाओं द्वारा गाय के गोबर एवं गौमूत्र का कच्चे माल के रूप में उपयोग  किया जाकर कई प्रकार के उत्पाद निर्माण की इकाईयों की स्थापना ग्रामीण स्तर पर की जा सकती है और इन उत्पादनों की मांग देश में तेजी से बढ़ भी रही है। इन उद्योगों में भी रोजगार के कई नए अवसर निर्मित किए जा सकते हैं। 


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तर्ज पर देश के अन्य समाजसेवी संगठनों को भी आगे आकर देश के नागरिकों को स्वावलम्बी बनाने में अपना योगदान देना चाहिए। केंद्र एवं राज्य सरकारें तो इस क्षेत्र में कार्य कर ही रही हैं परंतु देश के बेरोजगार युवाओं के लिए पर्याप्त मात्रा में रोजगार के अवसर निर्मित करने के उद्देश्य से भी समाजसेवी संगठन आगे आकर इस विकराल समस्या को हल करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।