देश के आर्थिक विकास में पर्यावरण का भी रखना होगा ध्यान
किसी भी देश में आर्थिक विकास और पर्यावरण में द्वन्द काफ़ी लम्बे समय से चला आ रहा है। तेज़ गति से हो रहे आर्थिक विकास से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव अक्सर देखा गया है। विश्व में हो रहे जलवायु परिवर्तन के पीछे भी कुछ देशों द्वारा अंधाधुँध रूप से किए जा रहे आर्थिक विकास को ज़िम्मेदार माना जा रहा है। अतः आज विश्व में यह मंथन चल रहा है कि पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाये बिना किस प्रकार देश में सतत आर्थिक विकास किया जाय और इसके लिए कैसे विश्व के सभी देशों को एक मंच पर लाया जाय। दरअसल आज जलवायु परिवर्तन, पानी की कमी, आर्थिक असमानता एवं भूख आदि समस्याएँ सभी देशों के सामने विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। इन सभी गम्भीर समस्यायों का समाधान भी केवल सतत आर्थिक विकास से ही सम्भव है। लेकिन यह सतत आर्थिक विकास पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाए बिना किस प्रकार हो आज सभी देशों के सामने यह एक यक्ष प्रश्न के रूप में मुँह बाए खड़ा है। विकास और पर्यावरण एक दूसरे से जुड़े हुए है। बिना पर्यावरण के बारे में सोचे विकास की बात सोची भी नहीं जा सकती। अगर पर्यावरण को नज़र अंदाज़ कर भी देंगे तो इतना तो तय है कि आखिर में विकास भी इससे प्रभावित होगा। असल में सवाल यही है कि पर्यावरण और विकास के बीच कैसे संतुलन साधा जाय। ऐसा कौन सा तरीका है जिससे विकास की गति में भी कोई रूकावट पैदा न हो और पर्यावरण को भी कोई नुकसान न हो।
आर्थिक विकास तो पर्यावरण के सहारे ही हो सकता है क्योंकि जो भी चीज़ कल कारख़ानों में बनती हैं वह पर्यावरण से लिए गए तत्वों से ही बनती है। अतः ये तो हमारे ख़ुद के हित में ही है कि हम ख़ुद पर्यावरण की रक्षा करें और इसका दोहन समझ बूझकर करें। पर्यावरण और आर्थिक विकास अलग अलग नहीं किए जा सकते। अगर पर्यावरण स्वस्थ रहेगा तो ही आर्थिक विकास आगे बढ़ाया जा सकेगा। और फिर ग़रीबी, भुखमरी कम करने सम्बंधी लक्ष्यों को भी प्राप्त किया जा सकता है। पर्यावरण को संरक्षित करते हुए हो रहा आर्थिक विकास मुनाफ़े वाला आर्थिक विकास होगा। पर्यावरण को बचाए रखने में यदि हम सफल होंगे तो उसे हमारी आगे आने वाली संतानों के लिए भी संसाधनो का उपयोग करने हेतु कुछ छोड़ जाएँगे और इसके कारण आगे आने वाली पीढ़ी भी, जैसा विकास वे चाहेंगे वैसा विकास कर पाने में सफल होंगे। अतः पर्यावरण और आर्थिक विकास में संतुलन आवश्यक है।
आज उद्योगों द्वारा फैलाए जा रहे कार्बन उत्सर्जन को न्यूनतम स्तर पर लाना आवश्यक है एवं इस मुद्दे को वैश्विक स्तर पर सभी देशों के बीच उठाना भी आवश्यक है। सभी देशों को मिलकर इस कार्य में योगदान देना होगा। भारत भी जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम से कम करने हेतु प्रयास कर रहा है। ग़ैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा के स्त्रोतों को अधिक से अधिक उपयोग करने हेतु गम्भीर प्रयास भारत में किए जा रहे हैं। जैसे सौर ऊर्जा के उपयोग पर भारत सरकार ध्यान दे रही है। कोयले का ईंधन के रूप में उपयोग कम से कम करने के प्रयास भी हो रहे हैं। ।
दरअसल विकसित एवं विकासशील देशों के बीच आपस के हितों में टकराव है। वर्ष 2000 में सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य एवं वर्ष 2015 में सतत विकास लक्ष्य निर्धारित किए गए थे जिन्हें वर्ष 2030 तक विश्व के सभी देशों को प्राप्त करना हैं। इस हेतु भी विशेष रूप से विकसित देशों के प्रयासों में कमी देखने में आ रही है। विलासिता और मूलभूत दोनों ही आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्यावरण का उपयोग किया जा रहा है। आज यह तय होना आवश्यक है कि विकसित देशों द्वारा विलासिता सम्बंधी आवश्यकताओं हेतु प्रकृति के संसाधनों का कितना उपयोग किया जाय एवं विकासशील देशों द्वारा मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का कितना उपयोग किया जाय। विश्व में सभी देश आज प्रकृति से केवल ले ही रहे हैं एवं प्रकृति को कुछ भी लौटा नहीं पा रहे हैं। इस प्रकार केवल ख़र्च करते रहेंगे तो कुबेर का ख़ज़ाना भी ख़ाली हो जाएगा। अतः अब यह सोचने का समय आ गया है कि प्राकृतिक संसाधनों का कितना दोहन किया जाय ताकि धरोहर बनी रहे आने वाली पीढ़ी के लिए हम प्राकृतिक संसाधनों को छोड़ कर जाएँ। जिन देशों ने प्रकृति से अधिकतम लिया है, अब जब वापिस करने की ज़िम्मेदारी आई है तो वे देश पीछे हट रहे हैं। जबकि इस असंतुलन को ठीक करना ज़रूरी है।
हालाँकि, यह पाया गया है कि कई देशों यथा चीन, भारत, दक्षिण पूर्वीय देशों एवं अफ़्रीका में जनसंख्या तेज़ी से बढ़ रही है। परंतु, फिर भी इन देशों में प्राकृतिक संसाधनों की प्रति व्यक्ति खपत कम है जबकि विकसित देशों में जनसंख्या भले कम है परंतु प्राकृतिक संसाधनों की प्रति व्यक्ति खपत बहुत अधिक है। इस स्थिति में सिद्धांततः विकसित देशों को पर्यावरण में सुधार हेतु ज़्यादा योगदान देना चाहिए एवं आगे आना चाहिए। जबकि वस्तु स्थिति यह है कि आज विकसित देश वर्तमान परिस्थिति में बदलाव करने को राज़ी नहीं हैं क्योंकि इनके यहाँ कल कारख़ानों में इस सम्बंध में किए जाने वाले तकनीकी बदलाव पर बहुत अधिक ख़र्चा होगा, जिसे ये देश वहाँ करने को तैयार नहीं हैं।
एक रास्ता यह भी है कि उपलब्ध संसाधनों का दक्षता पूर्वक उपयोग कर इसके दोहन को नियंत्रित किया जा सकता है। भारत में विशेष रूप से ऊर्जा के क्षेत्र में इस ओर ध्यान दिया जा रहा है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत में काफ़ी काम किया जा रहा है। आर्थिक वृद्धि को नापने का नज़रिया भी बदलना चाहिए। सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के बजाय सतत एवं स्थिर विकास को आर्थिक विकास का पैमाना बनाया जाना चाहिए ताकि प्राकृतिक संसाधनों के स्टॉक को बरक़रार रखा जा सके। साथ ही, रीसाइक्लिंग उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे रोज़गार के नए अवसर भी पैदा होंगे। किसी भी वस्तु की वैल्यू में वृद्धि की जा सकती है। संसाधनों एवं उत्पादों के कुशल उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। पूरे विश्व में उपज का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। भारत में भी अमूमन यही स्थिति है। इन फ़सलों को उगाने में बहुत सारे कार्बन का उत्सर्जन होता है, बहुत सारे पानी का उपयोग होता है, परिवहन का उपयोग होता है। परंतु कितनी आसानी से दावतों में खाद्य पदार्थों का सामान वेस्ट होता है। घरों में सब्ज़ी का बहुत वेस्ट होता है। लेकिन इन्हें उगाने में संसाधनों का भरपूर उपयोग होता है। जिसे मितव्ययता के मार्ग पर चलकर बचाया जा सकता है।
भारत में भूरक्षण भी एक बड़ी समस्या है। इससे देश के सकल घरेलू उत्पाद में 2.5 प्रतिशत की कमी हो जाती है। इससे फ़सल के अंदर पौष्टिक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं। ज़मीन का संरक्षण करना बहुत आसान है। घास उगाकर, पेड़ लगाकर, झाड़ियाँ उगाकर यह क्षरण रोका जा सकता है। उर्वरकों का इस्तेमाल ख़त्म करना आज की आवश्यकता है। उक्त छोटे छोटे उपाय करके भी पर्यावरण को बहुत बड़ी हद्द तक सुधारा जा सकता है।
भारत में नीति आयोग ने एक सतत विकास इंडेक्स तैयार किया है, जिसमें 17 बिंदु रखे गए हैं। इन 17 बिंदुओं पर निष्पादन के आधार पर समस्त राज्यों की प्रतिवर्ष रैंकिंग तय की जाती है। इससे देश के सभी राज्यों में पर्यावरण सुधार हेतु आपस में प्रतियोगिता की भावना पैदा होती है। नीति आयोग के इस प्रयोग से देश के राज्यों द्वारा पर्यावरण में सुधार हेतु कई नए नए प्रयोग किए जा रहे हैं।
2 Comments
yes, problems like global warming and increasing population will be causing lot of pressure on forthcoming generations. growth and development needs to be sustainable.
ReplyDeleteAgreed completely Sir , This May also lead to rising sea level and Mass exhodus in future ! Sustainable Energy with minimum carbon foot print can help at lot !
ReplyDeleteSunny Bhatia
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