राजकोषीय नीति एवं मौद्रिक नीति में सामंजस्य आवश्यक

किसी भी देश में राजकोषीय नीति का मुख्य लक्ष्य देश के आर्थिक विकास को गति देने का होता है। जब कि मौद्रिक नीति का मुख्य लक्ष्य सामान्यतः मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने का होता है। इन मुख्य लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु राजकोषीय नीति एवं मौद्रिक नीति के माध्यम से विभिन्न उपायों की घोषणा की जाती है। देश के आर्थिक विकास को गति देने के उद्देश्य से राजकोषीय नीति के माध्यम से यह प्रयास किया जाता है की अधिक से अधिक नागरिकों के हाथ में पैसा उपलब्ध रहे ताकि उनके माध्यम से वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग में वृधि होती रहे, उद्योगों एवं नागरिकों पर कराधान भी इन बातों को ध्यान में रखकर आरोपित किया जाता है। इसके विपरीत मौद्रिक नीति का लक्ष्य रहता है की किसी भी प्रकार से मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखा जाए। इसके लिए मौद्रिक नीति के माध्यम से अन्य उपायों के साथ साथ ब्याज दरों में बदलाव किया जाता है। यदि मुद्रा स्फीति की दर में वृधि दृष्टिगोचर होती है तो ब्याज की दरें बढ़ा दी जाती हैं, जिससे कृषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों के लिए पूँजी की लागत बढ़ जाती है एवं यह देश में विकास की दर को विपरीत रूप से प्रभावित कर सकता है। इसके विपरीत यदि मुद्रा स्फीति की दर में कमी होती है तो ब्याज दरों में कमी की घोषणा की जाती है। इसके कारण कई बार राजकोषीय नीति एवं मौद्रिक नीति में टकराव की स्थिति दिखाई देती है क्योंकि राजकोषीय नीति चाहती है कि सस्ती दरों पर पूँजी उपलब्ध रहे और मौद्रिक नीति मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगने के लिए ब्याज दरों में वृधि करती है और इससे पूँजी की लागत बढ़ती है। यहाँ पर यह समझना आवश्यक होगा की मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखना क्यों ज़रूरी है एवं मौद्रिक नीति के लिए कई बार देश के आर्थिक विकास के मुख्य उद्देश्य के ऊपर जाकर भी मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाना क्यों ज़रूरी हो जाता है?      

मुद्रा स्फीति की परिभाषा 

सामान्य बोलचाल की भाषा में, मुद्रा स्फीति से आश्य वस्तुओं की क़ीमतों में हो रही वृधि से है। इसे कई तरह से आँका जाता है जैसे - थोक मूल्य सूचकांक आधारित; खाद्य पदार्थ आधारित; ग्रामीण श्रमिक की मज़दूरी आधारित; इंधन की क़ीमत आधारित; उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित; आदि। मुद्रा स्फीति का आश्य मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी होने से भी है जिससे वस्तुओं के दामों में वृधि महसूस की जाती है।

मुद्रा स्फीति का प्रभाव 

मुद्रा स्फीति का सबसे अधिक विपरीत प्रभाव ग़रीब तबके, या फिर जिस वर्ग की आय पूर्व निर्धारित एवं स्थिर होती है, पर पड़ता है। खाद्य पदार्थ आधारित मुद्रा स्फीति में वृधि का सबसे अधिक बुरा प्रभाव ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों एवं मध्यवर्गीय परिवारों पर पड़ता है। ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों पर तो यह एक अप्रत्यक्ष कर के रूप में कार्य करता है। इससे उनके लिए रोज़मर्रा की आवश्यक वस्तुओं को जुटाना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।

सामान्यतः मुद्रा स्फीति की आदर्श दर 5 प्रतिशत तक को माना गया है, इससे अधिक की मुद्रा स्फीति की दर का समाज के हर वर्ग की बचत पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इससे आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा खान पान पर ही ख़र्च हो जाता है। अतः मुद्रा स्फीति की दर को क़ाबू में रखना बहुत आवश्यक है।


मुद्रा स्फीति लक्ष्य

मुद्रा स्फीति की अधिक दर न केवल ग़रीब तबके एवं माध्यम वर्ग के लिए परेशानी का कारण बनती है बल्कि दीर्घकाल में देश की आर्थिक विकास दर को भी धीमा कर देती है। इसी कारण से कई देशों में मौद्रिक नीति का मुख्य ध्येय ही मुद्रा स्फीति लक्ष्य पर आधारित कर दिया गया है। 

भारतवर्ष में भी दिनांक 20 फ़रवरी 2015 को, देश की जनता को उच्च मुद्रा स्फीति की दर से निजात दिलाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक मौद्रिक नीति ढाँचा क़रार पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया था कि देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर को जनवरी 2016 तक 6 प्रतिशत के नीचे तथा इसके बाद 4 प्रतिशत के नीचे (+/- 2 प्रतिशत के उतार चड़ाव के साथ) रखा जाएगा। उक्त समझौते के पूर्व, देश में मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 10 प्रतिशत बनी हुई थी। उक्त समझौते के लागू होने के बाद से देश में, मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 5 प्रतिशत के अंदर आ गई है। जिसके लिए केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक की प्रशंसा की जानी चाहिए। अब तो मुद्रा स्फीति लक्ष्य की नीति को विश्व के 30 से अधिक देश लागू कर चुके है।  


ब्याज दरों का बार बार बढ़ाया जाना 

प्रायः यह पाया गया है कि जब भी मुद्रा स्फीति की दर में तेज़ी दर्ज होती है, केंद्रीय बैंक तुरंत ब्याज दरों को बढ़ाने  की घोषणा कर देते हैं ताकि वस्तुओं की माँग में कमी हो सके और मुद्रा स्फीति की दर पर अंकुश लगाया जा सके। मुद्रा स्फीति की दर को कम बनाए रखने के लिए ब्याज दरों का बार बार बढ़ाया जाना देश के आर्थिक विकास की दर को विपरीत रूप से प्रभावित कर सकता है। क्योंकि, ब्याज दरों को बढ़ाने से वस्तुओं की उत्पादन लागत भी बढ़ जाती है और उस वस्तु की बाज़ार में माँग कम होने लगती है। साथ ही, ब्याज दरें अधिक रहने पर देश के नागरिक अपनी आमदनी को ख़र्च करने के बजाय, बचत की और आकर्षित होते है ताकि अधिक ब्याज कमाया का सके और इस प्रकार अपने ख़र्च को स्थगित कर दिया जाता है। हालाँकि, हाल ही के समय में तो केंद्र सरकार की नीतियों के कारण मुद्रा स्फीति की दर लगातार 5 प्रतिशत के अंदर बनी हुई है। अतः भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा भी  ब्याज दरों में कमी की घोषणा लगातार की जा रही है।


महँगाई कम करने हेतु आपूर्ति प्रबंधन की आवश्यकता  

उपरोक्त के अतिरिक्त, देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति आँकने के सूचकांक में लगभग 46 प्रतिशत हिस्सा ग़ैर-क्रोड़ मदों यथा खाद्यान एवं पेय पदार्थों का है, जिसमें शामिल है अनाज एवं उत्पाद (9.67 प्रतिशत); दूध एवं उत्पाद (6.61 प्रतिशत); सब्ज़ियाँ (6.04 प्रतिशत); स्नैक्स, मिठाइयाँ, आदि (5.55 प्रतिशत); तेल, घी, आदि (3.56 प्रतिशत), जिसकी माँग को ब्याज की दरें बढ़ाकर/घटाकर प्रभावित नहीं किया जा सकता है। हाँ, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महँगाई की दर में क्रोड़ मदों, जिसका हिस्सा लगभग 54 प्रतिशत है, की माँग को ज़रूर ब्याज की दरें बढ़ाकर/घटाकर प्रभावित किया जा सकता है। परन्तु, यह भी तो एक नकारात्मक सोच ही कही जाएगी। जब देश में आर्थिक विकास की दर को और अधिक बढ़ाए जाने की आवश्यकता हो ताकि रोज़गार के और अधिक अवसर पैदा हो सकें, ऐसे में, ब्याज दरों को बढ़ाकर माँग में कमी की जाय, यह उचित निर्णय नहीं कहा जा सकता है। परन्तु, महँगाई की दर को तो कम स्तर पर बनाए रखना भी आवश्यक है ताकि देशवासियों को भी इसका दंश नहीं झेलना पड़े। इस हेतु, आपूर्ति प्रबंधन को अपनाना होगा। जब भी किसी वस्तु की माँग बढ़े, उस वस्तु की आपूर्ति तुरंत सुनिश्चित की जानी चाहिए, ना की उस वस्तु की माँग कम की जाय। इस प्रकार एक नकारात्मक सोच के स्थान पर एक सकारात्मक सोच को अपनाया जाना चाहिए।  

यदि किसी वस्तु अथवा सेवा की माँग में वृधि हो और उसकी आपूर्ति उस माँग के अनुरूप सुनिश्चित  नहीं हो सके तो उस वस्तु के दाम बाज़ार में अत्यधिक तेज़ी से बढ़ जाते है। यथा, कई बार प्याज़ और शक्कर के दाम हमने बढ़ते हुए देखे है। शीघ्रता से आपूर्ति हो जाने पर इन मदों के दाम तुरंत घटते हुए भी हमने देखे है। अतः यह कहा जा सकता है कि यदि बाज़ार में हुई माँग में वृधि को आपूर्ति के माध्यम से सुनिशिचित कर लिया जाय तो इन वस्तुओं की क़ीमतों (मुद्रा स्फीति की दर) को शीघ्र ही नियंत्रित किया जा सकता है। 


मुद्रा स्फीति लक्ष्य के साथ साथ आर्थिक विकास की दर का लक्ष्य एवं बेरोज़गारी के स्तर को कम रखने का लक्ष्य भी आवश्यक 

कई देशों, विशेष रूप से विकसित देशों, में यह भी पाया गया है कि वहाँ की केंद्रीय बैंकों को मुद्रा स्फीति लक्ष्य के साथ साथ देश के आर्थिक विकास की दर का लक्ष्य एवं बेरोज़गारी के स्तर को कम बनाए रखने का लक्ष्य भी दिया जाता है। अतः भारतवर्ष में भी भारतीय रिज़र्व बैंक को महँगाई के स्तर को कम रखने के लक्ष्य के साथ ही बेरोज़गारी के स्तर को कम बनाए रखने का लक्ष्य एवं आर्थिक विकास दर का लक्ष्य भी दिया जाना चाहिए ताकि मौद्रिक नीति के माध्यम से कई सकारात्मक निर्णय लिए जा सके एवं राजकोषीय नीति एवं मौद्रिक नीति में भी समंजस्यता स्थापित की जा सके।